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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १८३ रागी दोषी मोही क्रोधी मानी माया लोभी हिंसारूपी चिंता चारी भारी झूला झूल्यौ है। जैनी कैसी मुद्राधारें दैनी देतौं जीतै हारै असो मिथ्यावादी सो वेदादी होकैं भूल्यो है।। ३५।। . दोहरा गुन विस्तारै आपनै प्रगट करें परदोष। पराधीन बहिरात्मा जे वरनौ निरमोष।। कुरिया सम्यकती के चिह्न जे जानत नांहीं रंच। रागदोष परनमन जुत क्रोधादिक परपंच।। क्रोधादिक परपंच सुद्ध करतूति न जानैं। पुन्य कर्म उतपत्य सत्य सिवमारग मानें।। जैसै बालक महुरि मानि गौरा की चिकती । तैसें कहै अजनि मान हम हैं सम्यिकत्ती।।३६।। दोहरा पुदगलादि परवस्तु सौं रागदोष अरु मोह। कहौं सुक्रिया कलेस सौं करत मुक्ति की टोह।। मूढक्रिया तेईसा मोह महामल कौं न मले अरु राग विरोध हरे न हरामी। कर्मनि के खय कारन हेत करें तन दंड जरावत चामी।। मारन चाहत हैं सु भुजंग लियै लठ कूटत ऊपर वामी। मंद कषाय विषै न करे नर चाहत मूढ भयो शिवगामी।।३७।। दोहरा पराधीन परजोग सौं अरु कषाय संयुक्त। हौं न कहत सठ कष्ट सहि अष्ट कर्म तैं मुक्त।। . तेईसा इंद्रिय पंच न रंच करी वस वंछत सुख भयो परधामी। ध्यान धरै व्रत मौंन जपादिक सौं सिव की थिति वाधत लामी।। आगम-वेद-परान कहैं जड हंस न अंस लख्यौ सख दामी। मंद कषाय विषै न करै नर चाहत मूढ भयो सिवगामी।।३८।। दोहरा कहौं बात दिष्टांत करि सुनौ चतुर मनु लाइ। जे अभव्य तिनिके हृदै जिनवानी न समाइ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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