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देवीदास-विलास
दोहा संपति ग्रेह सरीर मैं मगन महामद मस्त। मूरिख मरमु न जानहीं निज स्वरूप परवस्त।।
तेईसा कर्मनि कौ न विचारत स्वांगु मदे मनु मोह मिथ्यात मैं हूले। रोवत देखि अनिष्ट पदारथ इष्ट पदारथ देखत पूले।। संपति ग्रेह सरीर विर्षे ममिता रस के वस होकरि झूले। या जग माहि महा विपरीति अचेतनि के संग चेतनि भूले।।३२।।
दोहरा विषै भोग के लालची अंतर हृदै मलीन। वरनौं तें बहिरातमा करम रोग अधीन।।
तेईसा भेष धरै न मुनीश्वर को सुविवेख न रंचहि ये महि आनैं। जोरत दाम कहावत नाम जती विपरीति महा अति ठानैं।। अंबर छोडि दिगंवर होत सु अंमर फेरि ग्रहैं तजि आनें। जे सठ आपु करैं सठ औरनि जे सठ लोग तिन्हें गुर मानें।।३३।। .
दोहरा महाव्रती सु न अनुव्रती सम्यकती सु न कोइ। कहिए दुरलिंगी पुरिष अंतरदिष्टि न होइ।।
तेईसा भेष धरै मुनिराज पटंतर आसन मारि महाव्रत ठानें। मंत्र महासुनि कैं वसु भेव करावत सेव महासुख मानें।। सो व्रत छाडि परिग्रह जोरि भला जन नैंकु हिए महि आनं। वंचत लोगनि भोगनि हेत परे भवसागर मैं सु अयानैं।।३४।।
दोहरा लीन विर्षे रस भोग सौं दीन भए विललात।
मिथ्यामती असंजमी कहौं अधम उतपात।। सर्वगुरु
सवैया सासी सूधी जानैं नांही लाग्यौ झूठी कायामाही पापारंभी डंभी आपा माया ता मैं हूल्यो है। देखें ते बेरूपी पोटी रोवे सोवै राजी होवे नौंनी नीकी मीठी साता सोभा देखें फूल्यौ है।।
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