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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड दया मूल धुव धर्म-धर्म सम है न मित्र पुनि । धर्मवंत तह रिद्धि-सिद्धि प्रापति अनेक गुनि || भ्रात सु और जगमांहि प्रिय लख्यौ नहीं वर धर्म सम । नमौं सुधर्म कर जोरि जुग होहु धर्म रक्षक सु मम ।। २८ ।। दोहा धर्म हीन वरनौ सु नर यह संसार मंझार । जे मूरिष मिथ्यामती पसु सम नर अवतार ।। छप्पय ज्यौं जुवतिय बिनु कंत रैनु बिन चंद जोतिभर । ज्यौं सरतोइ न होइ लच्छ जिम हु न सून घर । । ज्यौं गजराज प्रवीन हीन दंतनि सु न सोहत । मुकताहल बिनु पानि ताहि गुनवंत न गोहत । । जिम सैना नरपति हीन कहि परम लता बिन पहुप हुव । जिम या नर भव निरफल भईय जिनि जन कैं नहिं धर्म धुव । । २९ । । दोहरा एक कवित्त विषै कहौं अर्थ दोइ सुनु संत । मूरिष अरु मति मंद कौ जुदै - जुदौ विरतं । । सवैया इकतीसा परम दसा मैं रहैं भरम न भोग गहैं, जे नर मलीन उर गुनहीन नर हैं । करम दमंत समरस मैं मगन, सदा मारग न राचैं दुरबुद्धि उर धर हैं । । सो समन माहि जाकै राग हैं न दोष, भाव जाकौं सुख लेस नांहि नांहि लोक तरहैं । कहै देवीदास तन मानै निज मारग मैं राचे संत, कुधी जे न जानत सु परहैं । । ३० ।। दोहा सुगुरु कहै सज्जन सुनौं दुरबुद्धिनि की दौर । गहि कुपंथ विपरीत मग कहत और की और । । तेईसा मारग छोड़ि कुमारग होत नहीं तिन्हिकैं द्रग दिष्टि पुलासी । सुंदरि सील सुबुद्धि सखी तजि सेवत पापि दुर्मति दासी । । १८१ आतम सुद्ध दसा न सम्हारत मानत झूठ क्रिया करि सासी । या भव नग्र विषै नर जे सठ अम्रत छांड़ि पियै विष आसी ।। ३१ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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