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देवीदास-विलास
छप्पय जिया जोनि जग मांहि सर्व देखत सु मित्र सम। तिन्हिकौं करत प्रमोद आप” गुन गरिष्ट गम।। दुखित वान दुरबल बिलोकि करुना धरंत मन। आराधै न विरोध ते सु दुरजन विलोकि तन।। जग मांहि जेह जैनी पुरिष चारि भावना मन धरत। पूरन प्रताप लखि आप बल परम भाव परगट करत।।२५।।
दोहा चरन वृक्ष करिकैं जहां करें संत विश्राम। भव दुख तपन बुझाइ तह लहत परम सुख धाम।।
सवैया इकतीसा व्रत मूल संजिम सकंध वंध्यौ जम नीयम उभै जलसींच सील साखा वृद्धि भयो है। समिति सुभार चढ्यौ बढ्यौ गुप्ति परिवार पहप सुगंधी गुन तप पत्र छयो है।। मुक्ति फलदाई जाकै दया छाह छाई भो भव तप ताई भव्य जाइ ठौर लयो है। गयो अघतेज भयो सुगुन प्रकास जैसो चरन सुवृक्ष ताहि देवीदास नयो है।।२६।।
दोहरा समिता निज चारित्र गुन धर्म एक रसरंग। इनि तीन्हीं की एकता कहौं सुनो सरवंग।।
छप्पै धर्म सोइ चारित्र धर्म समिता रस मंडित। धर्म सुद्ध परिनाम धर्म परभाव विहंडित।। धर्म क्षमादिक मूल धर्म संसार निरासक। धर्मसार जग मांहि धर्म अरि कर्म विनासक।। जयवंत धर्म धन धुअ सबल तीनि लोक महि पुनि परम। प्रनमौं सु धर्म कर जोरि जुग होहु धर्म रक्षक सु मम।।२७।।
दोहा धर्म अनेक प्रकार है अरु पुनि एक प्रकार। स्यादवाद वेदी पुरिष करें धर्म निरधार।।
छप्पय धर्म महातम धर्म सर्व सुख खानि धर्म धन जन हित कारन। धर्म विवुध ता चिन्ह धर्म सिव स्वर्ग सिधारन।।
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