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देवीदास-विलास
तेईसा सुद्धपयोग महाजल सौं मल पाप सु पुन्य हरै करि मंजन। राग विरोध विमोह निरंतर अंतर होत जगै जग भंजन।। निर्मल दिष्टि जगै जब जैन लगै गुरु वैन हृदै द्रग अंजन। सो सिवरूप अनूप अमूरति सिद्ध समान लखै सु निरंजन।।१८।।
दोहरा अनुभव सुद्ध स्वरूप को होत घटै थिति कर्म। मिटै मोहिनी कर्म की सात प्रकति को भर्म।।
तेईसा सिद्ध समान लखै जब आतम सात मरै प्रकतें गुन घातन। सात गहैं जब लौं अपनो घरु काज सरै जब लौ सुन वातन।। वातन की समझै जब चौज हियँ दुरगौज मिथ्यात विलातन। राग विरोध विमोह घटें घटिका पुनि दो न लगैं सिव जातन।।१९।।
दोहरा सम न होत पुनि भवन तजि सम्यकदिष्टी जीव। जे वरनौं सिव पंथ मैं अनुभव विर्षे सदीव।।
छप्पइ सर्वलघु परम धरम धन लखत चखत न, न तन तरवर फल। समर समय वर भजत तजत पर मन वच तन बल।। अभय बखत भर वढत सरस पन समय-समय पल। अगम अकथ गन चढत नसत जग भरम करम मल।। उर सरल अमल पर पन अटल करन सकल अधरम पतन। अपवरग सहज परसत समन परगट बल अनभव रतन।।२०।।
दोहरा
मगन सदा समरस विर्षे पगन चाम सौं नांहि। जे सदबुद्धी समरसी पुनि वरनौं जग मांहि।।
सवैया तेईसा जे सरवज्ञ समान स्वरूप सदा निरधारि धरै उर अंतर। राग विरोध विमोह दसा भ्रम भोग विलास उदास निरंतर।। देखि समान सुभासुभ कर्म विसेष मती न दवै सु कुजंतर। जे दिढ आतमग्यान क्रिया सिव सुख लहैं अगिले सुभवंतर।।२१।।
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