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संख्यावाची साहित्य खण्ड सम्यकदिष्टी जगी जिन्हिकै वर जानि लख्यौ सुपदारथ धूरे। या जग में जिन्हि संतन की सतसंगति मैं सुख सौं रहिबू रे।।१४।।
दोहरा तिन्हि कौ उर अंतर लरम परम धरम रस रीति। फिरि तिन्हि संतनि की कहौं संगति परम पुनीत।।
तेईसा जे विकथा सुनिवै बहिरे परदूषन जे न कहैं कबहू रे।। पावत लेत जहा गुन खोजि सुखीक महा सु अखै निधि पूरे। ' एक सदा समभाव रहै इक जानि लखै अरि मित्र हितू रे। या जग में जिन्हि संतन की सतसंगति मैं सुख सौं रहिबू रे।।१५।।
दोहरा बूझत सदगुरु सौं बहुरि सिष्य अवर उखलेद। जुदौं-जुदौं करि मैं कहौं सुनो संत वसु भेद।।
तेईसा कौंन सुधी कवि को रुचिवंत कहो पुनि भव्य सु को जग माही। को समुझाई जती सु कहौ पुनि सम्यकवंत कहावत कांही।। ग्याइक को सु कहा पुनि मंजन अंजन मैं समझ्यौ पुनि नाहीं। बुझत सिष्य कहौ गुर बात हमैं अतिगूढ दिखात अथाहीं।।१६।।
दोहरा सिष्य सुनौं उत्तर कहै गुरु उपदेसनहार। भिन्न-भिन्न समुझाइ मैं सो पुनि अष्ट प्रकार।।
तेईसा
ग्रंथ प्रनीत कहै सु सुधी कवि सो रुचिवंत सुधर्महि बूझै। सो भवि ताहि लगै उपदेस जती सुपरिग्रह सौं न अरूझै।। सम्यकवंत सु है सरधा जह ग्याइक सो निज तत्व समूझै। मंजन सोइ मजै उर अंतर अंजन सोइ निरंजन सूझै।।१७।।
दोहरा सुमति अंगुली करि अंजै अंजन सदगुरु वैन। मोह तिमिर फाटै जबै प्रगट अंतर नैन।।
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