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देवीदास-विलास
कवित्त गतागत तीरथ गंग विही नर साप पसारन ही विग गंथ रती। तीपथ सादत संघ अदोष षदो अघ संत दसाथ पती।। तीमग मैं वसि कैं सिधरेसु सुरे धसि कैं सिव मैं गमती। तीजग जोनि तजी नव रासि सिरावन जी तनि जोग जती।।११।।
दोहरा सिष्य ब्रह्म पूछ सु फिरि सदगुरु कहै बहोरि।
एकादस मैं अंक तैं आदि अंत सौं जोरि।। प्रश्न-उत्तर
तेईसा देत कहा बुध की पदवी सिव की असथान करें सुनिरान। कौनु हरै तम को नृप इंद्रिनि कौ अरु कौन घिनावन जान।। तारन कौन कहा खरचैं नर देखि कपूत डरै कह आन। जाइ धरै गुरु का वन मांहि सदा जब भाम तजै धरि ध्यान।।१२।।
दोहरा बानी जिनवर देव की सप्तभंगमयसार। तिन्हि के घट प्रगटी सु ते वरनौं परम उदार।।
सवैया इकतीसा जाके घट वसै जिनवानी सो पुनीत प्रानी जाकै उभै भांति की दया समस्त हियै हैं। जाकी मति पैनी भेद स्वपर प्रकासिवै कौं भिन्न-भिन्न करै छैनी को सुभाव लिये हैं।। पर सौं ममत्व टारि कै सु धरै निज भाव परम उछाउ सुद्ध रसपान कियै है। जाकै भ्रम नाहीं पगे निज ज्ञान माहीं सो तौ गुन कौ अथाही सत्य ही सौं चित्त दिये है।।१३।।
दोहरा सत्य प्रतीति दसा जगी तिन्हि के हदै समंत। तिन्हि की सत संगति कहौं सुख दातार अनंत।।
तेईसा जीरन जासु कषाय विषै मुख भाखत जे कहि तत्व छऊ रे। जे निज मारग को उपदेस करै भ्रम भीति जहान अनू रे।। १. यह पद जोगपच्चीसी में भी उपलब्ध है। दे. क्रम सं.-२/११/१०
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