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संख्यावाची साहित्य खण्ड (१६) बुद्धि बाउनी'
छप्पै बंदौ जिनवर भूत भविष्यत वर्तमान वल। बंदौ रहित सुसिद्ध दर्व नौभाव कर्ममल।। बंदौ ते आचरत पंच-आचार परमगुर। बंदौ ते उवझाई धरत उर हरत मोह जुर।। वसु बीस मूलगुनगन सहित बंदौ साधु-समूह नित। सज्जन सुपंथ मूरिख कुमग भाषा करि वरनौं कवित।।१।।
दोहरा देह-खेह की कोथरी महादुख अंकरि। जे यह सौं विरचै रचैं सुख-दुख भुगतें भूरि।।
सवैया तेईसा खेह कौ कंद महादुख फंद भ्रमै जग मैं जन याके सनेही। घातौ है कर्म उपाधि विषै रस भोग विनस्वर कारन ये ही।। चेतनि सिद्ध स्वरूप सदा जब कर्म उपाधि घटै घट तेही। सज्जन पोषत सुद्ध दसा सठ पोषत या अपनी करि देही।।२।।
दोहरा मूरिख मिथ्यादिष्टि सौं सज्जन सम्यक नैन। गुर उपदेस कहैं गहौ यह निज मारग औन।।
तेईसा सेवहु एक सदा अरिहंत सुधी निरगंथ व्रतीगुर मानौं। धर्म धरौ उर मांहि दया जुत श्री जिनभाषित ग्रंथ वखानौं।। मोख-दसा न जगी जबलौं तबलौं कछु और की और न जानौं। सम्यकभाव जगै वर मोख कहै गुर यो उपदेस पिछानौं।।३।।
दोहरा नहीं अबै अरिहंत पुनि नहीं सुगुर निरगंथ।
कहै सिष्य किहि भांति सौं गहिये सरधापंथ।। गुरु-उत्तर
तेईसा आलस छोडि निरालस हो जिन सासन को भविभ्यास करौ रे।
दुर्जन कौ परसंग तजौ गुनवंतनि को सतसंग धरौ रे।। १. रचना काल-सं. १८१२ चैत्तसुदी परमा गुरुवार कैलगमा ग्राम दुगोडह मज्झे।
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