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देवीदास-विलास एकादसम अंग कौ पाठी अंतर मिथ्या दिष्टिं सुठाठी। जदपि सप्त तत्वारथ भासै नव पादारथ भेद प्रकासै।।२६।। षटु सुदरव पंचासति काया उतपादादि त्रिगुन तिन्हि पाया। हेय उपादे तिन्है न सुझौ द्रव्य सूत्र मूरिष सु समूझौ।।२७।। करनी करिन के सिव सौंही वेदनहार सुभासुभ यौंही। प्रगट चराचर ग्रंथनि घोको सो परोक्ष श्रुत मूढ विलोकौ।।२८।। पढे आपु औरनि सुपढावै परख रहित कछु भेद न पावै। बाहिज कथन कथत बहुतेरौ सो प्रतच्छ श्रुत मूढ वसेरौ।।२९।। वंस वृद्धि धन काज निदाना सुनै सुहरिवंसादि पुराना।
औरनि कौं उपदेस करंता लोक सूत्र मूरिख सो जमंता।।३०।। सप्तधातु जागा जिहि फैली अंतराइ संयुक्त सुमैली। जिहि अस्थान ग्रंथ आरंभै करें अजान लोग लखि डंभै।।३१।। अस्त्री वेद नपुंसक दौनौं तिन्हि के बीच पडै मति रौनौं। मुरिख तिन्हैं सुनावै बातँ छेत्र मूढ श्रुत कह्यौं सुखा।।३२।। पढे सूत्र तजि काल म्रजादा जह उपजै परतक्ष प्रमादा। इहि प्रमान जो श्रुत आचरता काल मूढश्रुत मति को धरता।।३३।। ये इकईस भाव तिन्हि पोखै जे नर जैन पंथ मैं दोखै। देवसास्त्रगुरु मूरिख तीन्हौं तिन्हि सम्यक्त भाव ग्रसिलीनों।।३४।। यह परिनमन गयो तिन्हिकेरा सम्यक महल विर्षे तसु डेरा। तिन्हि तैं और न परम विवेखी तिन्हि जिन नीति प्रगट करि देखी।।३५।।
दोहरा सुनत महासुख ऊपजै जामैं रंच न गूढ। भाषा करि परगट कहें देवधर्म गुरु मूढ।।३६।। ग्रंथ उक्ति देखी प्रगट कही भाखि जिहि ठौर। कान मात पद अरथ घटि धरि लीजौ बुध और।।३७।। ग्रंथ अरथ छवि छंद की मूरति कला न पास।
सैली बिनु मैली भई गति मति देवियदास।।३८।। १. मूलप्रति में "उपदादिदि" २. इक्कीस
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