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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१७१
चौपही छंद बाहिज व्रती ह्रिदै मिथ्याती ताहि मांनि गर कहै सघाती। इहि प्रकार परनति जह लीजे भाव मूढ गुरु नर सु कही जै।।१३।। सम्यक हीन-हीन व्रत ठीको बाहिज-आभ्यंतर अति फीको। ताकौं मानि होहि गुरु चेला सो नर द्रव्य मूढ गुरु मेला।।१४।। गुरजन मानत तेसु प्रतग्या मार्ने क्यौं न जासु हम अग्या। इहि परिनमन सहित सुनु ग्याता सो परोछ गुर मूढ विख्याता।।१५।। स्वेत पीत पट पहिरन हारौ जोरत दाम परिग्रह भारौ। चेला इहि प्रकार गुरकेरा सो प्रतच्छ गुर मूढ नबैरा।।१६।। लोक रौंस सौं कुगुरु कुसेवै करि उपदेश आपु पुनि सेवै। यह करनी संयुक्त विसेखौ सो गुरुलोक मूढ उतपेखौ।।१७।। करै विहार अहार वसेरा जा गुर उर विकलप बहुतेरा। समाधान कारन यह जागा कालु गमावत यह सुख लागा।।१८।। यह परनति संयुक्त सुहेरौ जासौं कहै सुहै गुरु मेरौ। सज्जन निज सुदष्टि करि देखौ छेत्र सुगुर मूरिष करि लेखौ।।१९।। जो गुरकाल प्रजादा छांडै षटु आवास क्रिया पुनि मांडै। सरतें आपु असन व्यौहारी नगन दिगंबर मुद्राधारी।।२०।। जाको सुगुर मानि संतो नहीं विचारि सकै गुन दोषै। सहित जैन द्रग जे परखैया काल मूढ गुर लखौ सु भैया।।२१।।
दोहरा देव मूढ गुर मूढ को कह्यौ भेषि विरतंत। अब वरनौ श्रुत मूढ को सुनौं भेद गुनवंत।।२२।।
चौपही छंद गुनस्थान द्वादसै बतायो सुकल ध्यान को दूजौ पायो। अवीचार एकत्व वितर्की भावसूत्र परनति तह सर्की।।२३। अव सुनि भाव मूढ श्रुतज्ञानी वरनौं जिहि विधि ग्रंथ बखानी। श्रुत सिद्धांत पढे बहुतेरा निर्मल तासु जगै न सबेरा।।२४।। प्रगट आदि अष्टम गण ठाना एकादस परजंत बखाना।
बालक तरुन सुनौं भवि बूढा यहु विरतंत' भाव सुत मूढा।।२५।। १. मूल प्रति में “विरदंत' पाठ है।
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