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देवीदास-विलास
(१५) तीन मूढता अरतीसी.
. दोहरा महावीर गंभीर गुन वंदौं त्रिविधि प्रकार। देवशास्त्र गुरु मूढ कौं करौं प्रगट निरधार।।१।। भाव द्रव्य जग महि प्रगट, पुनि परोक्ष परतक्ष। लोक क्षेत्र अरु काल सठ लखौ सप्त विधि दक्ष।।२।। सात-सात विधि तीन हूँ एक बीस एकत्र। सुनौ संत वरनौ सु पुनि निज मारग हन सत्र।।३।।
चौपही छंद सर्व देव जेते जग माही जामै और भेद कछु नांही। इक चित होई सुवंदन हारौ सो सुर भाव मूढ निरधारौ।।४।। देव सहित आभरन सु मांनै सेवा कहो प्रतीति उर आनें। मन वच काइ करै तसु पूजा द्रव्य देव मूरखि सो दूजा।।५।। पूजै कुल सब देवनि केरा उर अंतर विकलपी घनेरा। रहै मगन जाके रस भीजौ सो परोक्ष सुर मूरिख तीजौ।।६।। हरि हरादि पूजै नित देवा जानै मानिन मैं स्वयमेवा। यह परिनमन हृदै तसु आवै सो प्रतक्ष सुर मूढ कहावै।।७।। वंडिनि-मुंडिनि के रस याग्यौ भक्ति छेत्र पालादिक लाग्यौ। धन सुतादि त्रिय कारन डोलै पूजै प्रगट अवांई बोलै।।८।। इहि प्रकार जाकौं मनु दौरै मगन आपु उपदेसत औरै। सुनौ संत रुचिवंत कहानी लोक देव मूरिख सो प्रानी।।९।। जिनमंदिर अथवा घर होई जिनप्रति छांडि अपूजक सोई। तीरथ जाई बिनैकरि भारी छेत्र देव सठ मारगधारी।।१०।। छांडि काल बेरा सुदि पावै सरतें आपु दिवालै आवै। पूजा भक्ति कस्यौ तिहि चहिये कालदेव मूरिख सों कहिये।।११।।
दोहरा सात भाँति परगट कहे देव मूड के भेद। अब वरनौं गुरुमूढ तुम सुनौ सुधी तजि खेद।।१२।।
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