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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड अरिल्ल प्रगट्यौ सम्यकज्ञान प्रगट सम्यक दरस। प्रगट्यौ तप सम्यक्त चरन प्रगट्यौ सरस।। चारि जोग सम एक जहा सोहै धरम। निसंदेह सो सिद्ध जीव कहिए परम।।३२।। तेईसा सुद्ध अनूप अखंडित सार हृदै तिन्हि के समदिष्टि प्रकासी। सो वह दिष्टि महा उतकिष्ट सुमंगल की करता अविनासी। सेवइ ताइ सुरासुर राइ धरै उर ध्याइ बिना इह रासी। सो महिमा बरनी सुत संत सुछंद कवित्त माहि जरा सी।।३३।। ___-गीतिका जग माहि सुकृत उदोत करि भवि जिय सु नरगति आवही। पुनि ऊँच गोत मिलै जहां कुल परम उत्तिम पावहीं।। जह जगै समकित भाव निरमल दिष्टि सो सासी दसा। निरभै सुछंद भयो जिया' जब जाइ सिवपुर कौं धसा।।३४।। रोडक जब जिनि करत विहार सहस वसु लच्छन मंडित। जुत अतिसय चउतीस अखिल गुन सहित अखंडित।। सो प्रतिमा थामर विसेष जिन आगम मांही। अचल मान थावर तथापि सो जंगम नाही।।३५।' छप्पय द्वादस विधि तप जुक्त मुक्त विधि बल सु कर्म किय। मन वच तन बल आदि प्रान परसंग छोड़ि जिय।। जे ततछनि निर्वान लहत उतकिष्ट सर्व सुख। जन्म जरा अरु मरन आदि खय करि सुदोस दुख।। केवल प्रबोध दरसन उदित अचल अनंत प्रताप गन। क्रम कमल जासु वंदित भविक लहत सुख स्वर्गति सुधन।।३६।। दोहरा कुंदकुंद मुनिराज कृत दरसन पाहुड देख। कीनैं तास परंपरा भाषा छंद विसेख।।३७।। १. मूल प्रति में “भिया" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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