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देवीदास-विलास
पद्धडी छंद जे पुरिष सुरासुर वंदनीक संजुक्त सील संजिम सु ठीक। तिन्हि देखत जे नर करत क्रोध दुल्लभ तिनिकौं सम्यक्त बोध।।२५।।
दोहरा संजिम स्वगुन सम्हारि बिनु राग न दिगंबर भेस। तप संजुक्त जिनुक्त भनि वंदनीक सुन लेस।।२६।।
साकिनी बंदौं परम तपस्या पूरन सीलवंत गुन भारी। बंदौं ब्रह्मचर्ज गुन मंडित मुक्ति गमन सहकारी।। तपसी सीलवंत जो प्रानी परम सुद्ध उपयोगी। जो प्रनीत नर बंदनीक वर ठीक परम रस भोगी।।२७।।
नाराच छंद न बंदिए सरीर बंदिये नहीं कुलीनता। न बंदिए सुजाति जातिवंत की प्रवीनता।। न बंदिए असंजमी मुनि सुदोष धाम हैं। न बंदिए सराउगै नहीं सु आप ठाम हैं।।२८।।
कवित्त चौंसठि चंवर सहित पुनि अतिसय अरु चौंतीस विराजै। प्रतीहार्ज विधि अष्ट चतुष्टय जे अनंत छवि छा ।। रहित अठारह दोस निरंतर बहु जीवनि हितकारी। जो भगवंत कर्म छय लच्छन कौं निमित्त अतिभारी।।२९।।
दोहा ग्यान दरस तप चरन गुन संजिम सहित सुजंत। मुक्ति हेतु यहु चारि विधि कह्यौ भाषि भगवंत।।३०।।
कवित्त छंद सदगुरु कहैं भव्य जीवनि सौं तुम कहु एक ज्ञान गुनसार। परगट होत ग्यान उर उपजत अरु पुनि गुन सम्यक्त अपार।। सो सम्यक प्रकार करि आवत चरन हरन दुर्गति-दुखरार। आवत चरन नरन भव छावत पावत जब समद्र भव पार।।३१।।
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