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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १६७ छप्पय चेतनि पुदगल धर्म दर्व कहिए अधर्म पुनि। काल दरव नभ षष्ट सप्त परकार तत्व सुनि।। जीवाजीव आश्रव सु बंध संवर सु निर्जरन। मोख पाप अरु पुण्य एह नव पद प्रमान भन।। षटु दर्व काल करि कैं रहित पंच अस्तिकाया सु इय। सरदहन जासु घटयहु अटल भवि सम्यकदिष्टी सु जिय।।१९।। चर्चरी छन्द जीव आदि दै सु तत्व सर्द है भाई। जानि सो दिष्टि वीतराग जू बताई।। एक बेबहार एक धू प्रभा गूझै। होत ही सुदिष्टि जीव को स्वरूप सूझै।।२०।। मरहठा छन्द श्रीजिनवर बानी उक्त बखानी सुनौ सुद्ध गुनवंत। यहु सम्यकदरसन परम सपरसन कीजै हृदै तुरंत।। रतनत्रय मंडित परम अखंडित हूजे गुननि प्रधान। जग मैं गुन भारी सब सुखकारी पहिली सिव सोपान।।२१।। गीतिका छंद तप चरन व्रत संजिम क्रिया सब सक्ति माफिक कीजिये। बेसक्ति की करनी सुकरि सरदहन उर धरि लीजिये।। सो परम साखि सुनौं भविक जन कथित श्रीभगवंत जू। सरदहन जासु हृदै सु नर वर समकिती सो संत जू।।२२।। __ बेसरी छन्द दरसन ज्ञान चरन परिपूरे मंडित विनय परम तप सूरे। गौतमादि गनधर गुन भारी जे नर वंदनीक सहकारी।।२३।। . सवैया इकतीसा जाके उर सहज स्वरूप ज्ञान भान जग्यौ मोह अंधकार के समस्त ठौर नसे हैं। वीतरागभाव धारि के असुद्धता विदारि के सुद्धता सुतीति आप सौं सु आप रसे हैं। तिन्हि की प्रतिज्ञा जे न मानें महामूढ प्रानी देखत तिन्हैं सु अहंकार माहि धसे हैं। तेई बंचि आपनो स्वरूप मिथ्याचारी जीव बसै सदा लोक मैं कुबुद्धि पास पसे हैं।।२४।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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