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देवीदास-विलास
सवैया इकतीसा एकै जैसे कुगुरु कौं नमैं आपु अकलिसौ एकै नमैं जानि एकै लज्या सात आठ के। एकै नर नमत बडाई नाम करम कौं एकै भय मानि भरे सरम उचाट के।। तिन्हि कौं न बोध आइ पाप करें हर्ष पाइ दया कौं कठोर मिथ्या मद मोह माट के। कहत संतोष जेते जन जैसी क्रिया करें धोबी कैसे कूकरा न घर के न घाट के।।१३।।
तेईसा अंतर बाहिर जदो परकार परिग्रह त्यागि प्रमान करे हैं। भंजत भोगस्व जोग विचारत संजिम भावहु दै सुधरे हैं।। निर्मल सुद्धपयोग दसा करि मैं दुर कर कुभाव हरे हैं। सम्यकवान सु. हैं परधान जथारथ जे मुनि जानि परे हैं।।१४।। सम्यक भाव जगैं उर अंतर ग्यान कला उपजै अतिभारी। ग्यान कला उपजै सब आनि भये सुपदारथ प्रापति कारी। प्रातिति होत पदारथ की सुपदारथ साधि दसा निरवारी। जो सु दसानि नवारत ही सु भए परमारथ कारज कारी।।१५।।
अरिल्ल श्रेयाश्रेय विचार करत अवधरत मन। छेदन हार कुसील सील संजुक्त जन।। सीलवंत जग माहि लहत अदभुत सुफल। मुक्तिपुरी को राज बहुरि पावत अटल।।१६।।
___गीतिका छंद-पलिगवंध नर वचन जिनवर परम औषधि मोहद्वार उदगरन। नरगति इक सुख दान विषय उपाधि व्याधि सुहरन।। नर सै अभव्य झै सुअमृत तुल्य सब सुख करन। नर है सु पीवत रोग दुद्धर जरा-जनमन-मरन।।१७।।
चौवीसा पहिलो लिंग जानि इक दरसन जिन स्वरूप मुद्रावत भारी। लिंग अवर दूसरौ सरावग दरसन एकादस प्रतिमाधारी।। दरसन लिंग तीसरौ सोहै सहित अर्जिका के व्रत नारी। दरसन वि रहित पुनि चौथौ लिंग उक्ति जिन ग्रंथ उतारी।।१८।।
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