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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १६१ जीव दरव की कथा अनन्त जाकौ कहत न आवे अंत। इहि कारन सु चौपही भनी सुनत दया उपजै उर धनी।।३१।। दया-धर्म तैं उपजै ग्यान होइ जीव जग मैं परधान। जारौं दयो सुपथ दरसाइ भव्य जीव कैं चित्त समाइ।।३२।। जथा जोग चरचा सरदही जाकी बांधि करी चौपही। पडत सुनत उपजै आनंद देवीदास कहैं मति मंद।।३३।। दोहरा सत अष्टादस दस अधिक संवत् अस्वनि मास। कृष्ण पंचमी भौम दिन पह विरदंत प्रकास।।३४।। (१३) विवेक बत्तीसी. दोहरा दोष अठारह करि रहित सहित सुगुन छयालीस। बंदौ ते अरिहंत धरि बार-बार करि सीस।।१।। सुरस दुरस सारस पुरस धीरसमरस निवास। परस दरस पारस सरस पोरस सुजस विलास।।२।। विमल न रवि सम हेत वितु तमह विनासी ठौर। ज्यौं श्री पारसनाथ तजि संसौ हरै न और ।।३।। वर्द्धमान सिवपद लह्यौ वध करि भव गति कर्म। पापै कसि आपै गह्यौ दह्यौ छोभ वसुकर्म।।४।। भविजन भज जप नाम जिन यह सो निधि है जैन। भज-भज ना जिय सोधि जै बिनु जप मन हनि हैन।।५।। करुना दोइ प्रकार है अंतरंग बहिरंग। ता करि सहित सुधर्म मैं बरतत बुध सब रंग।।६।। धर्म रीति धरि दोष दहि भीत भाग मद खोइ। कर्म जीति करि मोख लहि वीतराग पद होइ।।७।। य जी सुपन कर नर सुहै सुर नरकन पसु जीय। यही नजर सुधि समर है रम सधि सुर जन हीय।।८।। १. रचनाकाल-संवत् १८१४ भादौ सुदी १३। सन।। २. यह दोहा जोग पच्चीसी के क्रमांक ३ में भी आया है। ३. यहदोहा जोगपच्चीसी के क्रमांक ४ में भी आया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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