________________
१६०
देवीदास-विलास
तन मुख नाक धरै सो नैंन सो भाख्यौ चौरिंद्री जैन। संख आदि दोइंद्री गात जलचर गोचरुनी क्रम जात।।१६।। द्वादस वरष आउ उतकिष्ट तिन्हि की जिनवर कही सुदिष्ट। बारह जोजन दीरघ देह कही संख की उत्तिम एह।।१७।। कानखजूरादिक जिय ठौर चिंटी जुवा खटकीरा और। ए सब जिय तेइंद्री रास तिन्ह की आउ दिना उनचास।।१८।। तीनि कोस उतकिष्ट सरीर तन परवान विषै रस धीर। अलि विच्छू पतंग टिडि माखि ए जिय चुरिंद्रिय जि भाखि।।१९।। उत्तिम तासु आउ षटु मास चारि कोस दीरध तनु तास। यह विकलत्रक जिय की बात वरनी जिन आगम विख्यात।।२०।। पंचेंद्री सनमूरछ मच्छ जाकी कथा कहौं परतच्छ। सहस एक जोजन तन धीर पूरव कोटि वरष थिति वीर।।२१।। संभूरमन दीप के मांहि यामैं कछू विकलता नांहि। यह उतकिष्ट आव उतपन्य अंतमहूरति कही जघन्य।।२२।। तनु वरन्यौ उतकिष्ट उतंग मद्धिम लघु नानाविधि अंग। गर्भज अरु पुनि जो तिरजंच जाकी बात कहौं पुनि रंच।।२३।। तिन्हि मैं समना अमना होत स्त्री पुरिष नपुंसक सोत। समना नर नारकी सुदेव जिन आगम में भाषी एव।।२४।। तीनि लिंग पुनि वरनौं भेद स्त्री पुरिष नपुंसक वेद। नरक सुतीनि वेद संयुक्त यह परतच्छ बात जिन उक्त।।२५।। स्त्री पुरिष देवगति मांहि नरक विर्षे जे जानौ नांहि। वेद नपुंसक नरक मंझार नर तिरजंच त्रिविधि परकार।।२६।। पंचेंद्री संनमूरछ कहे एकेंद्री विकलत्रक लहे। अरु हुंडक संस्थान सदीव ए जग माहि नपुंसक जीव।।२७।। अस्त्री पुरिष जहा परवीन भोमभूमि वररौं तह तीन। प्रथवी जल अरु अगिनि समीर इतर निगोद नित्य पुनि धीर।।२८।। ये सूछम षटु विधि जिय लेउ तिन्हि मैं मिलै नारकी देउ। चरम सरीरी उत्तिम लोग अरु पुनि कहे भूमि वा भोग।।२९।। ये सब उदय मरन करि मरै बाकी जिय उदीरना भरें। यह संसार दसा वरनई जथा सक्ति भाषा करि दई।।३०।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org