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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१५९
चौपही सत्ता प्रथम कह्यौ जिन देव भाख्यौ भत दसरौ भेव। प्रान तीसरौ भनैं सुजंत चौथे जीव नाम विवरंत।।२।। मूल नाम ये वरनैं चारि तिनके भेद कहौं विस्तार। प्रथवी जल पावक अरु पौन चारि भेद ये सत्ता तौंन।।३।।
अन सुनु भूत भेद दूसरौ जामै वनसपती सब धरौ। विकलत्रिक चतुरिंद्रिय जे जीव तिनि कौं संग्या प्रान सदीव।।४।। पंचेंद्री पूरौ जो होइ जासौं जीव कहौ सब कोइ। अब सुनु जाके वध की कथा जुदी-जुदी वरनौं सब वथा।।५।। जह सत्ता असंख्य को घात भूत जीव तह एक समात। असंख्यात तरु काई घरौं सो वध इक दो इंद्री हत।।६।। दो इंद्री इक लाख सताय ते इंद्री इक घारौं पायु। ते इंद्री वध करै हजार जहाँ एक चउरिद्रिय मार।।७।। चौरिंद्रिय सौ घातै कोइ वध इक पंचेंद्री सम होइ। पंचेंद्री के वध कौ पाप वरनौं सुनौं सुभविजन आप।।८।। हेम सुदरसन मेरु समान अरु पुनि कोटि रतन परधान। एती दर्व करै जौ पुन्य. एक जीव घातत सब सुन्य।।९।। करै सु वध नर मन वच काइ जाकौ पाप कह्यौ समुझाइ। अब कुछु कहौं समझ की दौर जामैं समझि परै पुनि और।।१०।। प्रथवीकाइ तासु दो जूम इक कठोर इक कोमल भूम। थिति कठोर छिति काइ सरीस उत्तिम सहस वरस बाबीस।।११।। कोमल भूमि काइ थिति कही द्वादश सहस बरस सब सही। पुनि जल काइ जीव की आउ वरष हजार सात गति जाउ।।१२।। अगिनिकाइ थिति दिन तीनि सो बुध जन-मन लेउ नवीनि। पवन काइ थिति वरनन करौं वरष हजार तीनि गनि धरौं।।१३।। वनसपती काइ थिति जोइ वरष हजार भनी दस सोइ। अब वरनौं विकलत्रक जीव आउ काउ कौं भेद सदीव।।१४।। जाकै तन अरु मुखु जानियें सो जिय दोइंद्री मानि। तन मुख अरु पुनि नासावंत सो तेइंद्री जानौ संत।।१५।।
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