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________________ १५८८ देवीदास-विलास दोहा परमानन्दमई सदा आतम अंग-अभंग। द्रव्य द्रष्टि करि देखिये विमल रूप सरवंग।। तेईसा देखनहार सु देखु सुधी जग जाननहार सु जान भिया रे। बाहिय केर समै रसि तूं वह तो अपनैं रस को रसिया रे।। चेतनि अंक निसंक सदा निकलंक पदारथ नाम जिया रे। अंतर नांहि बसै तन बीच नगीच दिपै निज खोजु हिया रे।२३।। दोहा हिये मांझ खोजै कहां सम्यकदिष्टि विहीन। सात प्रकति घाते बिना सम्यक लहै न तीन।। कवित्त तेईसा मूल मिथ्यात मिथ्यात समै अरु मिश्र मिथ्यात जहा लगु चौंची। ए प्रकते दुखदाइनि तीनि सु सम्यक के परिनामनि लौंची।। आतम की अनुभूति जगी जब आनि सुबुद्धि सखी सु पहौंची। तीनि गई अरु तीनि के थोक की चारि कषाइ भली विधि दौंची।।२४।। दोहरा सात प्रकृति कौं बल घटै उपजै सम्यक भाव। यही सात मरदे बिना निरफल कोटि उपाव।। तेईसा सम्यकदिष्टि जगे बिनु जीव नहीं अपनौ पर पोरिष बूझै। सम्यकदिष्टि जगे बिनु जीव उभै निहचै व्यवहार न सूझै।। सम्यकदिष्टि जगे बिनु जीव सही निजु मैं सिवपंथ न सूझै। सो समदिष्टि जगै स्वयमेव किधौं गुर को उपदेश समूझै।।२५।। दोहा क्रिया सुभासुभ आचरत बंध सुभासुभ होइ। सुद्ध स्वरूप जगे बिना सिवपद लहै न कोई।। (१२) जीवचतुर्भेदादि बत्तीसी' - दोहरा वंदौं मन वच काइकै चरन नाभिनयनंद। जीव चतुरभेदादि करि कहौं चोपही बंद।।१।। १. रचना काल-वि. सं. १८१० अश्विनमास कृष्ण पंचमी भौमवार। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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