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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१५७ तेईसा पुन्य के जोग सौं भोग मिलै पुनि भोग तौ पाप को पुंज भिया रे। पाप कीनी तिसौंरी तिलटी गति नीच परै मरि कैं सु जिया रे।। त्याजिवो जोग उभै करनी निज पंथ त● इनिको रसिया रे। कर्म तौ एक स्वरूप सबै रचि कै सु भलो पनु कौंन लिया रे।।१९।।
दोहा पाप पुन्य परनमन मैं नहीं भलप्पनु कोइ।
सुद्धपयोग दसा जगै सहज भलाई होइ।। सुद्धोपयोगी वर्णन छप्पय पाप पुन्य परिनमन हीन रागादि निवारक। सहित सुद्ध उपयोग जोग निश्चय सुविचारक।। मंडित ध्यान अभंग संग सरवंग विहंडित। मनमथ मद अंकूर चूरि इंद्रिय मन दंडित।। करुना समस्त जुत प्रगट तह समै-समै प्रतिगुन मरम। जे धर्मवंत सु महंत पुनि लहत इष्ट पदवी धरम।।२०।।
दोहा बिनु उपदेस जगत्र मैं धोखें परे सुजंत।
तिन्हैं ज्ञान दातार तें वरनौ गुर गुनवंत।। अछिरचेतनी तेईसा देत सदान दुखी तिनि देखि कषायनि कौं चय दोष नसाया सील लियो सुख को सब मूल मथे खलु कामबलि कसि काया मौन रचे धुव ध्यान स. वर साधि सुनौं निवरे पुनि माया। मानु मले मद नाषि लियो पद मोख लखे धनु नैन खुलाया।।२१
दोहरा तीर्थंकर चौबीस पद लेखो ध्यान समाय।
चेतो पंद्रह अंक मैं को इक अंक सुभाय।। गुरूपदेस . तेईसा अछिर को कह चेतत मूरिख अछिर मैं कह ग्यान धरे हैं। ग्यान धरे जिहि मैं तिहि चेतु सु अछिर कौन प्रमान परे हैं।। अछिर तौ चतुराइनि मैं चतुराइनि तैं कह काम सरे हैं। सो त्रगुनातम आतम नित्य महासुखकंद अनंद भरे हैं।।२२।।
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