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देवीदास-विलास
दोहरा मूल कवित्त अरिल्ल के बसत चौपही संग।
दोहा अरु पनि सोरठा पंच प्रकार अभंग।। श्रीगुरु उपदेश व्यवहारी । प्रीतम पुन्य समान न और सुमित्र है कोइ समीप बखानैं। या जग में सुखदाइक ठौर पवित्र है पुन्य प्रधान सयानैं।। पाप कलेस सदा नहैं धीर कुदान मैं गर्भित है दुख ठानैं। इष्ट लगै करु ताहि सुवीर प्रमान मैं दोइ कहै कविता.।।१६।। निश्चय गुरोपदेश दोहा
दया दान पूजा सुफल पुन्य पाप फल भोग। भेद ज्ञान परगट बिना कर्म बंध को जोग।।
छप्पय दया दान पूजा सु पुन्य कारन भवि जानौं। पुन्य कर्म संजोग संत साता पहिचानौं।। सुभ साता तह विषय भोग परनति जग माही। विषय भोग तह पाप बंध दुविधा कछु नाही।। फल पापकर्म दुर्गति गमन दुरगति दुखदाइक अमित। इहि विधि विलोकि निज दिष्टि सौं पाप पुन्य इक षेत नित।।१७।।
दोहरा कोऊ कहै वितर्क सौं भलौ पुन्य ते पाप। जासु उदै दुख मैं भजे पंच परमपद जाप।।
छप्पय पाप कर्म के उदै जीव बह विधि दुख पावत। दुख मैटन के काज पंच परमेस्वर ध्यावत।। पंच परमगुरु जाप माहि सुभ कर्म विराजत। सुभ करमनि को उदौ होत दुरगति दुख भाजत।। दुख नसत होत सुखवंत जिय कुगति गमन तिन्हि दल मलौ। कहि पुन्य कर्म तै जगत महि पाप कर्म इहि विधि भलौ।।१८।।
दोहा कोई जन ऐसी कहै भलौ पाप तें पुन्य। उपजे विसय-कसाय करि विघन धर्म करि सुन्य।।
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