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संख्यावाची साहित्य खण्ड
गीतिका (मडरबन्ध) न मत सुरज न हर्षि तसु पद सदा उलटि कुगमन। न मग कुटिल उदास जग जुत कृपा सरवसु रमन।। न मर सुवरस पाइ अनुपम प्रान वधु रुचि दमन। न मद चिरु ध्रुव नहीं सुख-दुख मोह न जरसु तमन।।५।।
दोहरा
मोह तिमिर विनसत भयो स्वपर विवेखी भोर। जाग्यौ जब जानै गए जनम जरादि कठोर।।
कवित्त (पर्वतबन्ध) मैं न जगे रे परे जम के वस तारन हार लखेनन मैं।
आदि न अंत सुसंत पुरातम सुद्ध स्वरूप दसागन मैं।। मर्द न मोह सुछंद अनूप बिना करामात बसै तन मैं। मैं न जरे मन आतमराम मरा मत आन मरे जन मैं।।६।।
दोहा (धनकबन्ध) जनम मरन वन माहि भ्रमत सुहित रहित सुविसाल। रे जिय अंत मिल्यौ नहीं समकित बिनु चिरकाल।।
छप्पय (कमलबन्ध) अंग' लगावत राख रहत नित मौंन धारि मुख। संग भार सब नाश करत तप सहत घोर दुख।। धरत भांति बहु भेष बडावत जटा सीस नख। वन मैं रहत अदेख असन त्या- सुभाष पख।। इत्यादि कष्ट सहत सुपुंरिष मास अवर बीते बरख। सो जैन नैन बिन झूठ दिस-रहित जेह निज पर परख।।७।।
सोरठा निज पर परख विहीन तन मन धन के लालची। सद्गुरु देखि प्रवीन कहै वचन उपदेस पुनि।।
गतागत छंद रे धन दान बिना रुक लाभु भुला करुना बिनु दान धरे।
रे मन वाध वली गन जासु सुजान गली वध वान मरे।। १. यह पद बुद्धिबाउनी (दे. पद्य संख्या ४१) में भी उपलब्ध है।
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