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संख्यावाची साहित्य खण्ड
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न तापछ यह जगत मैं न तापछ तुम हंस। न तापछ तुम आपनी जाति पाति कुल वंस।।१७।। न तारै माता पिता न तारें कुल गोत। तारै निज करतूति वह तारै ह्रदै उदोत।।१८।। जा तन सौं तू रचि रह्यौ जात न तेरी सोइ। जा तन जा तन कौं सुपिनि घरी एक सुनि होइ।।१९।। भवन धरै जे जिय सुखी भवन धरै दुख वास। भवन तजै भौ गति भजै भवन सुभव न पास।।२०।। जोवन भूले बाउरे जोवन के रस रंग। जोवन कौं असमर्थ पुनि जोवनहार अभंग।।२१।। तुम जोगन परदर्व है तुम जोगन गुन ज्ञान। तुम जोगन तैं हौँ जुदे तुम स्वंयोग परवान।।२२।। सुमति धरौ उर वीर हौ. बूरे भव संसार। सुमति धरौ परगट हियै उतरौ भवदधि पार।।२३।। मन जाकौ निज ठौर है परसि आतमाराम। कहि साधौ जाकैं नहीं धंधों आठों जाम।।२४।। जन जानत नव नय नही नयन हीन जिन बैन।
लीन चीन विन तीन गुन ग्यान हीन सुन जैन।।२५।। (११) जोग-पच्चीसी
दोहा सिवदेवी नंदन नमौ पाप निकंदनहार। चित्रबंध छप्पय कवित्त कहौ सु जिन उर धार।।
छप्पय (अंतला पथ) विनसीक कह छोडि अथिर कह जानि बिरच्चे। कवन सेज दलमली कवन व्रत धारक सच्चे।। सिव सनमुख कह गयौ ध्यान किहि परसु धरेपिन। कहा रहित तन तासु देखि जग कयौ कहा जिन।। को करत सेव जब जीति तिनि चारि घातिया कर्म ठग। श्रीनेमिनाथ रागादि हनि भोजनादि मन रोधि खग।।१।।
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