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देवीदास-विलास देह पराजी तू नहीं सुख उपराजा भूप। आजा गुरु उपदेश मैं आजीय ज्ञान स्वरूप।।२।। नानी की तूं मानि है कहाँ खोलि तुझ कान। नाना करमन तू करे करता पुद्गल आन।।३।। काकी मानि कही करी का कारन तूं पाइ। या काया के हेत ते सरवसु दयो गमाइ।।४।। माता वसु मद पापु रे साता करम उदोत। या अपूत तन के विर्षे मगन मानि सुख होत।।५।। मोह भ्रमा मार्यो तुझै कीनै घपू निदान। जाकी तूं मामी पियें मूरिख भयो सुजान।।६।। आ फूफास्यौ बाल जिम रोवै चहै न माइ। ज्यौं तुम पर परनति पगे निज सुसक्ति विसराइ।।७।। मौसी राख्यौ है मनों जिन आगम के हेत। मौसा हिव तूं हो रह्यौ गहै चतुर्गति खेत।।८।। मगन होऊ सुनि सरससुर सो रससुर तुझ नांहि। निरखु दसा सुचि सो नहीं पुनि वरनादिक माहि।।९।। सारे जग जंजाल में सारी अपनी रीति। खोइ फकत भौंदू भयो करि दुरजन सौं प्रीति।।१०।। भौजिय तूं बहु विधि.धरी भाइ उर दुर दुरनीति। मोह बहिनि करि कै जर्यो गति-गति भयो फदीत।।११।। जीजीवन के काज तू मरनु न चाहत सोइ। जीजागा तूं जाइ गौ राखन हार न कोइ।।१२।। नारी मैं निज गुन विर्षे परम पदारथ खोजि। तुम सुभतीजे करम के उदै रहे अति वोजि।।१३।। नाती नौ पुनि गुन सु तुम लखे एक चित होइ। नातिनि को व्यौहार अपि समझयौ भेद न कोइ।।१४।। या समधी प्रगटी नहीं पुनि कबहु तुम पास। संमधिन कीनी सुमति की तजि दुरमति की आस।।१५।। समधेला सुख जगत के निज सुख रत्त समान। या निहचे करि कै सु तुम कीनी परख न जान।।१६।।
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