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संख्यावाची साहित्य खण्ड
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सवैया इकतीसा ज्ञानी सौ न और पै न और सौ सुज्ञानवंत कैं क्रिया विचित्र एक जान की। जानी एक ठौर को पिछानी है सु और कौ सु और कौ अजानी है न जानै एक ठान की।। ठान-ठान और पैन और ठान-ठान कोई रीति है पिछानिबे की वाही के प्रमान की। ग्यानी है सुग्यानी है न ग्यानी और दूजौ कोई और के पिछानी मैं निसानी एक ग्यान की।।२३।।
दोहरा चेतनि-चेतनि सौ सदा तन सौ तन जड रूप। निबसैं एक निदान दो भेद कहौं चिद्रूप।।
सवैया इकतीसा जैसे काठ मांहि बसै पावक सुभाव लियें हाटक सुभाव लियें निवसेउ पल मैं। पहुप समूह मैं सुगंध को प्रमान जैसे तेलु तिली के मंझार बसै और फल मैं। दही दूध विर्षे सु तूप आप स्वरूप बसै तीत रहै ज्यौं पुरैन बीच जल मैं। जैसे चिदानंद लिमैं आपनो स्वरूप सदा भिन्न है निदान बैसे देह की गहल मैं।।२४।।
दोहरा वीतराग परिनामकौं को कवि भाखनहार। नागेसुर रसना सहस करि-करि लह्यौ न पार।।
सवैया इकतीसा परनति तीन परकार कही आतमा की हेय अति ही सुहेय विषै भ्रम जार मैं। उपादेय वीतराग आतमा सुभाव कयौ ग्येय ग्यान सरवग्य परम विचार मैं।। केवली की महिमा अनंत सुख विर्षे तीत सुद्ध उपयोग को विसेष निरधार मैं। देवीदास कही जैसी वीतराग जू की कथा बालबोध टीका देखि प्रवचनसार मैं।।२५।।
दोहरा वीतराग पच्चीसका पढे गु* रस पोख।
परमारथ परचै सु नर पावै अविचल मोख।। (१०)उपदेश पच्चीसी
दोहरा समैं पाइ सदगुरु करै भविजन देखि अवाज।
मगन भऔ इहि देह सौं तेरो होत अकाज।।१।। १. रचना काल- संवतु १८१६ जेठ वदी १२ लिखितं ललितपुर मज्झे सुहस्त।
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