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________________ १४७ संख्यावाची साहित्य खण्ड दोहा चेतनि ग्यान प्रमान हैं ग्यान गेय परवान। कहौं ग्यान सो सर्वगत सुनौं संत दै कान।। सवैया इकतीसा चिदानंद आपु ग्यान गुन की बराबरि है ग्यान गुन तैं न अधिकारौ है न कम है। ग्यान गुन की विभूति फैली लोकालोक माहि लोकालोक ज्ञेय जातैं ग्यान ग्येय सम है।। अतीत अनागत अनंत परजाय लिय लोक है सु जामैं छह दरव कौ रम है। जारौं बाहिरो अलोकाकास है सुजाके विर्षे सर्वगत ग्यान सो कहावै जाकी गम है।।१६।। दोहा निश्चयनय करि ग्यान गुन ज्ञेय विषै नहिं जाइ। ज्ञेय न आवै ग्यान मैं कहौं बात समुझाइ।। सवैया इकतीसा आतमा को परम सुभाव एक ग्यान ही है ग्यान सो तो और परमतत्व सौं अमिल है। परमतत्व जीव दोऊ धरै न अवस्था एक एक अस्थान न प्रवः सो अखिल है।। व्यवहारनय सौं सुग्यान अरु ग्येय तत्व एक खेत रहैं यों अनाद ही कौ हिल है। चच्छु कैसी रीति लखैजानै असपर्स जैसे ग्यान ज्ञेय तत्वज्ञेयाकार होकैंगिल है।।१७।। दोहा अपि करि पदारथ विर्षे करै न जीव प्रवेस। पैठौ सो व्यवहार करि लागैं कहौं सुलेस।। सवैया इकतीसा ग्यान परदरव पिछानिवे कौं परवीन ज्ञान के समूह धुव ज्ञेय विर्षे नरसे। व्यवहार दिष्टि सों पग्यौ सौ ज्ञान ग्येय विर्षे पैठो सो दिखात क्रिया ग्याइक सब रसैं।। इंद्रिय वितीत रीति परम अतिन्द्रिय है जामै सब लोकालोक के प्रमान दरसैं। जैसे नैनं अपने प्रदेसनि प्रकार करि रूपी द्रव्य लखै जाने बिन हू सपरसैं।।१८।। दोहरा ग्येय विषै व्यवहार करि वरतै आतमराम। सो वरनौं दिष्टांत करि सुद्ध जीव परिनाम।। सवैया इकतीसा जैसें इंदनील मणि डारै पय भाजन मैं मनि को सुभाव पय नीलौ सौ लगत है। निश्चै करि जद्यपि सु नीलमनि आपु विौं उपचार करै व्यापी पय में पगतं है।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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