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________________ १४६ देवीदास-विलास सवैया इकतीसा घातिया विनासै भये इंद्रिय विकारहीन रहित म्रजाद बोध फैली विभो तास की। भये थिर परिनाम आप विर्षे आपहू के आकुलता सो तौं होत भई है विनास की। स्वपर प्रकासी सुख आतमा विलासी जैसी पर पद्म खुलासी ग्यान केवल प्रकास की। अंत बिनु धीरज प्रकासे बलवीरज सु जैसे जिनराज कौं प्रनाम देवीदास की।।१२।। दोहरा इंद्रिनि करि आधीन जब सुख दुख भुगते जीव। वीतराग इंद्रिनि बिना वरनौं ग्यान सदीव।। सवैया इकतीसा छुधा आदि देके दुख जगत मैं नानाभाँति सुख हैं अनेक आदि और जे असन तैं। पराधीन बिना ग्यान छाइक प्रकासे जब दोऊ उपजै न भगवान जू के तन तैं।। तातें भगवान जू सपर्स रस गंध वर्न रहित विकार भाव विषै रस मन तैं। देवीदास कहैं जानो सुख जो अतिंद्री ग्यान महिमा बखानि जाकी कहै को वचन तें।।१३।। दोहरा बहुरि कहों दिढतायकरि वीतराग की बात। तिन्हि कैं सुख दुख हैं नहीं यह दिष्टांत समात।। सवैया इकतीसा जैसे आगि लोह पिंड संगति विहीन होत सो तौं आगि एक खेद खिन्नता न लहै है। आगि लोहपिंड के अभाव सौं सु आप ठान एकता सौं धन की सुचोट कौं न सहै है।। जैसे वीतराग वेदि आपनों स्वरूप आपु सरवांग चेतना सुभाव ही कौं गहै है। इंद्रिय वितीत रीति परम अतिंद्रिय है पराधीन विषै सुख दुख कौंन चहै है।।१४।। दोहरा जिन्हि कैं केवलज्ञान कौं विमल परिनमन होइ। सो भगवान विर्षे नहीं अनुपरोक्षता कोइ।। __ सवैया इकतीसा जामैं परमानू सौ न किंचित परोछ कछू द्रव्यक्षेत्र काल भाव समै एक गल के। जामैं संसारी सु पराधीन इंद्रिय विकार मरजाद लियै बोध गए हो अवल के।। जामैं पंचइंद्री गुन दरसे समंत पूरे समरथ जानिवे कौं समै एक पल के। आपहू नैं परम प्रकासी असो जिन जू कैं अचल अवाधित अनंतज्ञान झलके।।१५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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