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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १४५ सुख दुख एक ही प्रमान जान जगत के राग दोष मोह दसा डारी है वितरसी। जैसो सुद्ध परम विवेकी मुनिराज जाकै सुद्ध उपयोग घन घटा घट वरसी।।८।। दोहरा सुद्धपयोग प्रकार करि प्रगटी सकति अनंत। आतम सुद्ध सुभाव कौं लाभु कहौं भगवंत।। सवैया इकतीसा जामैं ज्ञान केवल प्रकासे लोकालोक भासे दर्शनावरण जाकी कीनी है निकंदना। अंतराई अंत करे हरे अरि मोहकर्म जगी स्वयमेव सांची परम अनंदना। सुद्ध उपयोगी सो सुजोगी भोगी आपरस जामैं और जोग कौं प्रमान परधंदना। ऐसे वीतरागजू विराजै देह देउरे मैं जाकी देवीदास तीनि काल करै वंदना।।९।। दोहरा सुद्धपयोग प्रकार करि प्रगट्यौ छाइक ज्ञान। कहौं जासु करि कैं सहित स्वयंभू सु भगवान्।। सवैया इकतीसा भयो जाकै लाभु आतमीक परिनाम कौं जगे अनंत भी घातिया कौं छेउ जू। सवै तत्व ज्ञाता सो विधाता सरवज्ञ जाकी इन्द्र धरनेन्द्र चक्रवर्ति करै सेउ जू।। सुद्धउपयोग के प्रसाद करि आपहू तैं पायो है सुभाव जानै पर्म स्वयमेउ जू। स्वयंभू सुनाम सुखधाम वीतराग जैसे तीनि लोकनाथ महादेवनि के देव जू।।१०।। दोहरा स्वयंभू सुप्रभ को कहौं निरमल नित्य सुभाउ। अरु उतपाद बखान वय धू त्रिकाल समुझाउ।। सवैया तेडसा सुद्ध सुभाव दसा उपजी भगवंत विषै फिर मैं सुन खोइ। नासिअ सुद्ध विभाव गए तिन्हि कैं सुन फेरि प्रवर्त्तत सोइ।। चेतन सिद्धस्वरूप वही सु असुद्ध दसा पुनि सुद्ध समोइ। या उतपाद तथा वय धू सबको सुमिलाप समै इक होइ।।११।। दोहरा सुद्धपयोग प्रसाद तैं प्रगट्यौ छाइक ग्यान। स्वयंभू सु प्रभ को सु फिरि वरनन करौं बखान।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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