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देवीदास-विलास
सवैया इकतीसा पाप अरु पुन्य जानैं एक ही प्रमान करि सुभासुभ रीति दुरनीति मैं न दबै है। इष्ट वा अनिष्ट दो प्रकार जे पदारथ हैं जापै राग-दोष भाव सौं न परिनवै है।। विमल स्वरूप जाग्यौ चेतना सुभाव जाकै भयो सांचौ सुद्ध उपयोगवंत तवै है। जाकी देह तैं न उतपन्य होत दुख खेद सो तौ संत पराधीन वेदना नसबै है।।५।।
दोहरा सुद्धजीव जुत सुद्ध गुन वरनौं करि दिष्टंत। पराधीन सो वेदना वेदै नाहीं संत।।
सवैया इकतीसा जैसे लोह पिंड में न पावक प्रवेस जबै तबै लोह पिंड मैं न वासना तपन की। तपन विहीन लोह आपनै प्रमान सदा पावक बिना न लोह सहै चोट घन की।। जैसें जीव पाप-पुन्य एकता विचारि राग दोष के अभाव सौं सम्हारि सुद्धपन की। सुद्धउपयोगी भयो आपनो स्वरूप वेदि सो तौ वेदना न लहै पराधीन तन की।।६।।
दोहरा चेतनि परम सभाव सूख लीन आप रस मांहि। वरनौं विषय विकार रस सुख को कारन नांहि।।
सवैया इकतीसा जैसे केइ राति कैं फिरै या कहे बाघ, सर्प रक्षस कुजीव चोर आदि और लहिये। दिष्टि तैं विदारि तम देखें वस्तु भारी कम तिन्हि कैं न दीपकादिको प्रकास चहिये। जैसे जीव को सुभाव सुख रूप आप ही तैं आप जिन भाषित प्रतीति उर गहिये। विर्षे सुख आस है सु मोह कौं विलास भ्रमआतमा मैं ताहि कौन कारज कौं कहिये।।७।।
दोहरा सुद्धपयोगी जीव कौं कहौं स्वरूपाधिकार। वीतराग परिनमन की महिमा अगम अपार।।
सवैया इकतीसा जानै सो प्रमान भली भाँति भेद आगम के जीव निरजीव आदि नवतत्व दरसी। भरम विदारी धीर धर्मज्ञ तपचारी विगत विभाव सार संजिमी समरसी।।
१. मूल प्रति "श्वरूप”
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