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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१४३ वरत विधान दान पूजा सोइ सुभ रीति जातै उतपाद है विभूति विषै सुख की। राग दोष रहि तप योग सुद्ध परिनाम दैन हार मोख भाखी भगवान मुख की।।१।।
दोहरा हेय असुद्धपयोग फल कहौं दुविध परकार। गर्भित विषय-कषाइ करि मलिन मोह भ्रम जार।।
सवैया इकतीसा असुभ ते जीव नरगति मैं दलिद्री दुखी तिरजंचगति मैं सहै है कष्ट वेदना। नरक मैं परै नाना भाँति के विलाप करै जहाँ काहू नारकी के जीवन उभेदना। सुभ परिनामनि के उदै राज-देव सुख विषय कसाइ की उपाधि है शुभेदना। जानौं मति फेर संत दौनों एकमेक पाप-पुण्य की विभूति फल या मैं महाखेदना।।२।।
दोहा जाही सुख करि के सहित सदा सिद्ध अरहंत। कहौं सुद्ध उपयोग फल उपादेय अत्यंत।।
सवैया इकतीसा तिजग में भारी सो अपूरव अचिर्जकारी परम आनंद रूप अखै अविचल है। प्रगटे सु आपहू तैं और को सहाइ बिना विषय वितीत सो अनोपम अमल है।। एक सौ निरंतर प्रवर्ते सदा काल नित्य अखिल अबाधित अनंत तेज-बल है। असौ सुखु सरस प्रकासे भगवंतजू कै सौ तौ सब सुद्ध उपयोग ही को फल है।।३।।
दोहा
समकित रस परसे बिना पर्यो न जिय को ठीक। करि दिष्टांत कहाँ सु बिनु सब करतूति अलीक।।
सवैया इकतीसा जैसें और धातु के मिलापवान हीन हेम कसत कसौटी सौं सु दीसै पराधीनता। जो पै पीट पत्र करि दीजे आंच नाना भाँति बिगरे सलौनी जाकी घटै न मलीनता।। जैसे क्रिया कोटि करै पानी जौं विवेख विना धरै बृत मौन रहै देह करै-छीनता। सम्यक स्वरूप के प्रकास भेद ग्यान बिना सुद्धता न लहै पैन दहै कर्म कीनता।।४।।
दोहा जो निज आप स्वरूप लखि पाप पुन्य इक जोइ। कहौ सुद्ध उपयोग मैं दीनी सकति समोइ।।
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