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देवीदास-विलास
मैं करि आस उदास भयो तुम्हरी गुनमाल बना उर लाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।२२।। देर करो मति श्रीकरुनानिधि जू पति राखनहार निकाई। जोग जुरे क्रम सौं प्रभ जू यह न्याइ हजूर भई तुम आई।। आनि रह्यौ सरनागत हौ तुम्हरी सुनिकै तिहुलोक बड़ाई। बेहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।२३।। मैं प्रशु जू तुम्हरी सम को इनि अंतरु पारि करी दुसराई। न्याइन अंत कटै हमरी न मिलै हमकौं तुम्ह सी ठकुराई।। संतनि राखि करौ अपनै ढिग दुष्टनि देउ निकारि वराई। बेहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।२४।। दुष्टनि की रस-रंगति मैं हमको कछु जानि परी न निकाई। सेवक साहिब की दुविधा न रहै प्रभ ज करि लेउ भलाई।। फेरि नमैं सु करौ अरजी जसु जाहिर जानि परै जगताई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।२५।। या विनती प्रभ के सरनागत जे नर चित्तु लगाइ करेंगे। जे जग मैं उपराज करे अघ एक समै भरि मैं सुहरेंगे।। जे गति नीच निवारि सदा अवतार सुधी सुरलोक धरेंगे। देवियदास कहैं क्रम सौं पुनि ते भवसागर पार तरेंगे।।२६।।
दोहरा प्रभ तुम दीनानाथ ही मैं अनाथ दुख कंद।
सुनि सेवक की वीनती हरौ जगत दुख फंद।।२७।। (९) वीतराग-पच्चीसी
दोहरा मन वच तन करि कै नमौं सुद्ध आतमाराम। वरनौं चेतनि दर्व के त्रिविधि रूप परिनाम।।
सवैया इकतीसा मुभासुभ सुद्ध या बखानौं तीनि परकार परनति जीव कैं सुभाव ही के रुख की। विषय कसाइ अव्रतादि परिनामनि सौं करनी असुभ जग माहि थान दुख की।। .
१. मूल प्रति “ डेर"।
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