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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड जो नर देह मिली क्रम सौं करि गर्भ कुवासु महादुखदाई। जे नवमास कलेंस सहे मल मुत्र अहार महातप ताई ।। ए दुख देख जबै निकस्यौ पुनि रोवत बालपनै दुखपाई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई । । १५ ।। जोवन मैं तन रोग भयो कबहुं विरहा वस व्याकुलताई । माणि विषै रस भोग चह्यौ उमत्त रह्यौ सुख मानत भाई ।। आइ गयो छिन मैं विरधापन या नरभौ इहि भांति गमाई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई ।। १६ ।। देवभयो सुरलोक विषै जब मोहि रह्यौ परियां उर लाई । पाई विभूति बड़ी सुर की पर संपति देखत झूरत जाई । । माल जबै मुरझया तब ही थिति पूरन जानत ही विललाई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई । । १७ । । ए दुख मैं भुगते भव के जिन्हि कौं वरनैं कहुं पार न पाई । काल अनादिन आदि भई तुम मैं दुख भाजन हौं अधमाई ।। सो तुम जानत हौ सबही जबही जिहि भाँति धरी परजाई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई । । १८ । । कर्म अकाज कियो हमरौ हमकौं चिरकाल भए दुखदाई | मैं न बिगार करे इनि कौ बिनु कारन पाइ भए अरि आई ।। मात-पिता तुम हौ जन के तुम छांडि फिरादि कहौ कह जाई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई । । १९ । । सो तुम्ह सौं कह दुक्ख कहौं प्रभु जानत हो तुम राइयराई । मैं इन्हि कौं परसंग कियौ दिनहूंदिन आवत मोहि बुराई ।। ग्यान महानिधि लूट लियो इनि रंकु कियो हरिभाँति हराई । बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई ।। २० ।। मैं प्रभ एक स्वरूप सही सब या इन्हि दुष्टनि की कुटिलाई । पाप सु पुण्य दुहू निज मारग मैं हमको इन्हि पासि लगाई । । मोहि थकाइ दियो जग मैं विरहानल दाह दहै न बुझाई | बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियै जिनराई ।। २१ ।। या विनती सुनि सेवक की निज मारग सो प्रभु देउ लगाई। हौं तुम दास रहौं तुम्हरे संग लाज करौ सरनागत आई ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only १४१ www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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