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________________ १४० देवीदास-विलास नित्यनिगोद अनादि रह्यौ त्रस के पद की तह दुल्लभताई। जौ क्रम सौं निकस्यौ वह तैं जब इत्यणिगोद रह्यौ चिरछाई।। सूछम-बादर नामु भयो जब ही जिहि भाँति धरी परजाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।८।। जाई मही जल तेज भयो पुनि मारुत होइ भयो तरु काई। देह अघात धरी जब सूछम घातत वादर दीरघताई।। एक उर्दै परतेक भयो सहधारण एक निगोद बसाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।९।। इंद्रिय एक रह्यौ चिरु मैं कब लब्धि' उदै छय ऊप समाई। बेवक चारि धरी जब इंद्रिय देह उदै विकलत्रक आई।। पंच सु आदिक दो परजंत धरै इनि इंद्रिनि के त्रस काई।। बेंरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।१०।। काइ धरी पशु की बहु बार भई जल जंतुनि की परजाई। हो थल मांहि अगास रह्यौ चर होइ पखेरुव पंख लगाई।। जो दुख मोहि भये पसु मैं तिन्हि कौं वरनै कहुँ पारु न पाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।११।। नर्क मंझार लियो अवतार पर्यो दुखभार न कोई सहाई। ते तिल से सुख काज करे अघ सों सुदि नर्कनि में सब आई।। ता तिय मैं इसकी पुतरी हमरै हियरा करि लाल भिटाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की बिनती सुनियें जिनराई।।१२।। लाल प्रभा सु मही जह की अरु सर्कर रेत उन्हार बताई। पंकप्रभा सुधु आवत है तमसी सुप्रभा सु महातम काई।। जोजन लाखक कौ इसपिंड जहा इक ही छिन मैं गर जाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।१३।। ए अघ सात महादुख कारन मैं विसयारस के फल पाई। काटत बाँधत हैं सबही निरदै सरिता महि देत बहाई।। देव अदेव-कुवार जहां सब पूरव बैरु बतावत जाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।१४।। १. मूल प्रति “लध्वि" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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