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संख्यावाची साहित्य खण्ड (८) पुकार-पच्चीसी
दोहरा जे यह भव संसार मैं भुगतै दुक्ख अपार। सो पुकार पच्चीसका कहौं कवित्त इक ढार।।१।।
सवैया तेईसा श्रीजिनराज गरीबनवाज सुधारन काज सबै सुखदाई। दीनदयाल बड़े प्रतिपाल दयागुनमाल सदा सरनाई।। दुर्गति टारन पाप निवारन हो भवतारन कौं भविताई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।२।। जन्म-जरा-मरनौं तिरदोष लगे हमकौं प्रभु काल अनाई। तासु विनासन कौं तुम नाम सुन्यौं हम वैद महासुखदाई।। सो निरदोष निवारन कौं तुम्हरे पग सेवत हौं चितु लाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।३।। . जौ इक-दो भव कौ दुख होहि तौ राखि रहौं मन को समुझाई। यों चिरकाल कुहाल भयो अबलौं कहुं अंतु पर्यो न दिखाई।। मो पर या जग मांहि कलेस परयौ दुख घोर सह्यौ नहिं जाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।४।। देखि दुखी पर होत दयाल सु है इक ग्रामपती सिरदाई। हो तुम नाथ त्रिलोकपती तुम सौं हम अर्ज करी सिरनाई।। मो दुख दूरि करौ भव के वसु कर्मनि तैं प्रभु लेउ छुड़ाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।५।। कर्म बडे रिपु हैं हमरे हमरी पुन हीन दसा करि पाई। दुक्ख अनंत दियो हमकौं हरि भाँतिनि भाँति निषाद लगाई।। मैं इन वैरनि के वस होकरि कैं भटक्यौ सु कयौ नहिं जाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।६।। मैं इस ही भवकानन मैं भटक्यौ चिरकाल अनादि गमाई। किंचक ही तिल से सुख कौं बहु भाँति उपाइ कर्यो ललचाई।। चारि गतै जिहि मैं भटक्यौ जह मेरु समान महादुख पाई। बेरहि बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनियें जिनराई।।७।।
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