SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ देवीदास - विलास जो पूरव क्रत कर्म उदै सुभ- असुभ देत रस । भुंजत भोग उदास हर्ष पुनि नहि विषाद वस । । जागत पुनि बहिरंत सैंन सोवंत सुपन करि । ग्राम ग्रेह अस्थान मंत्र सुनत जत कु भरि ।। जे पुरिष काल पंचम विषै पंचपरम पद मन धरन । त्रैकाल जाम भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २३ ।। सागर अरु संग्राम सिंघ अरु नाग माग पुनि । पावक अरु दुरव्याधि रोग बंधन अपार गुनि || चुगल चोर चंडार जगत जे ते उपाइ कर । भूत पिसाच अनेक अवर बहु भांति लच्छहर ।। इन्हि आदि अवर भयहरन कहु पंच परम पद मन धरन । त्रैकाल जाम भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २४ ।। पंच परमपद-मंत्र अखिल अछिर तीसपन । करत ध्यान धरि धीर सुद्ध मन-वच लगाइ तन ।। श्रावग सरधावंत दमन इंद्रिय सु पंच भर । लच्छवार जपि मंत्र लच्छ परिमल सु पहुप धर । । श्री जिनपद अर्चित भ्रम रहित तीर्थंकर पदवी धरन । त्रैकाल - जाम-भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २५ ।। करत जीव बहु घात झूठ बोलत प्रमान हति । परधन अरू परनारि करत बहु नेह मानि रति । । नाना रत्त विभूति जानि जग महि अनेक विधि। देखत करत विलाप होहि मम ग्रेह सर्व निधि । । इहि भाँति आउ पूरी करत अंतकाल जपि मंत्रवर । हनिकै कुकर्म सुभकर्म फल स्वर्गपुरी पावत सुनर ।। २६ ।। Jain Education International दोहरा पंचपरम गुर की कहत महिमा मिलै न अंत। जथा जुगति पच्चीसका कही जाम सुत संत ।। २७।। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy