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देवीदास - विलास
जो पूरव क्रत कर्म उदै सुभ- असुभ देत रस । भुंजत भोग उदास हर्ष पुनि नहि विषाद वस । । जागत पुनि बहिरंत सैंन सोवंत सुपन करि । ग्राम ग्रेह अस्थान मंत्र सुनत जत कु भरि ।।
जे पुरिष काल पंचम विषै पंचपरम पद मन धरन । त्रैकाल जाम भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २३ ।।
सागर अरु संग्राम सिंघ अरु नाग माग पुनि । पावक अरु दुरव्याधि रोग बंधन अपार गुनि || चुगल चोर चंडार जगत जे ते उपाइ कर । भूत पिसाच अनेक अवर बहु भांति लच्छहर ।।
इन्हि आदि अवर भयहरन कहु पंच परम पद मन धरन । त्रैकाल जाम भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २४ ।।
पंच परमपद-मंत्र अखिल अछिर तीसपन । करत ध्यान धरि धीर सुद्ध मन-वच लगाइ तन ।।
श्रावग सरधावंत दमन इंद्रिय सु पंच भर । लच्छवार जपि मंत्र लच्छ परिमल सु पहुप धर । ।
श्री जिनपद अर्चित भ्रम रहित तीर्थंकर पदवी धरन । त्रैकाल - जाम-भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन ।। २५ ।।
करत जीव बहु घात झूठ बोलत प्रमान हति । परधन अरू परनारि करत बहु नेह मानि रति । । नाना रत्त विभूति जानि जग महि अनेक विधि। देखत करत विलाप होहि मम ग्रेह सर्व निधि । । इहि भाँति आउ पूरी करत अंतकाल जपि मंत्रवर । हनिकै कुकर्म सुभकर्म फल स्वर्गपुरी पावत सुनर ।। २६ ।।
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दोहरा
पंचपरम गुर की कहत महिमा मिलै न अंत। जथा जुगति पच्चीसका कही जाम सुत संत ।। २७।।
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