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संख्यावाची साहित्य खण्ड निरविकार परिनाम धाम निग्रन करन कर। जीवन मरन प्रमान एक निज ज्ञान प्रानधर।। तजि भर्म धर्म धुव आचरत निर्मल पद परसत चरन। विश्राम सकल सुख धाम धन बहु प्रकार मंगल करन।।१८।। जीवादिक नवतत्व वेदि मुख पाठ करत धुनि। निज स्वरूप आराधि साधि मारग सुमुक्ति मुनि।। दमन पंच इंद्रिय सुमार छट्टम विकार मन। त्रस थावर रखवार साथ भंडार अखै धन।। संजुक्त भेद द्वादश सु तप बाहिज आभ्यिंतर धरन। गुन अष्टवीस मंडित सुगुर बहु प्रकार मंगल करन।।१९।। पंच महाव्रत धरन तरन तारन निवास बन। पाप पुंज उदगरन करन मन हन पुनीत जन।। सप्ततत्व उच्चरन मरन जन मन सुहरन पुनि। मोह भुजंगम डरन धरम अनुसार परम चुनि।। विधि चारि जीव रक्ष्या करें सेवक सुखदातार जन। तसु नाम जपत वसु जाम मम बहु प्रकार मंगल करन।।२०।। यहिय पंच परमेष्टि करम गिरि दलन वज्रधर। यहिय पंच परमेष्टि स्वर्ग सिवपुर प्रवेस कर।। मोह विषम भव-कूप पर्यो जिय बहु दुख पावहि। कर गहि लेत उवारि सकल भव भ्रमहि भगावहि।। यह मंत्र राज त्रैलोक्य महि सज्जीवन तारन तरन। त्रैकाल जाम भनि जोरि जुग बहु प्रकार मंगल करन।।२१।। पंच परम गुर मंत्र सुद्ध पद करि प्रमान धरि। गनि अछिर पन तीस धीस साथै समूह भरि।। अतुल अनादि अनंत अकृत अविचल प्रताप तसु। तारन तरन त्रिलोक संत नासन सुकर्म वसु।। इहि विधि प्रताप गनधर कथित भव्य पुरिष तारन तरन। त्रैकाल जाम-भनि जोरि कर बहु प्रकार मंगल करन।।२२।।
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