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देवीदास-विलास लाज काज बिनु वरन गंध रस फरस बीस किय। इय असुद्ध परजाय हीन सिव सिद्ध परम जिय।। करतूति क्रिया जन मन भरन रहित सुद्ध अव्वय अतन। श्री परमसिद्धि दातार भवि बहु प्रकार मंगल करन।।१३।। हियें दिष्टि सम्यक्त ग्यान गुन ज्योति प्रकासी। जग्यौ सुद्ध चरित्र सकल विपरीति विनासी।। व्रत-तप-संजिम-जुक्त-मुक्त मारग विसरामी। बलवीरज महिमा अनंत आरज परिनामी।। चुत राग दोष निजगुन निलय आचारज पदवी धरन। सो संत सहित छत्तीस गुन बहु प्रकार मंगल करन।।१४।। सर्व संग वर्जित विभाव परिनामन जाकैं। राखे निज परिनाम आपुमहि आपु समाकैं।। सुख समूह वेद्यौ निधान गुन समरस चखे। इंद्रिय जनित विकल्प सुख दुखदाइक नखे।। प्रगट्यौ सुबोध विभ्रम हरन सर्व सुद्ध पद आचरन। सो होहु परम मुनिराज मुझ बहु प्रकार मंगल करन।।१५।। दुद्धर ध्यान धरै सुधीर तन-मन अडोल करि। सहित परीसा घोर जीति रागादि मोह अरि।। निसंदेह निरसंग सदा निर्भय विकार निर। निरप्रमाद निरवाद साध निवसैं सुछंद गिर।। संजुक्त संत पनवीस गुन परम दिगंबर सुद्ध गन। निर्मल स्वरूप जुत होहु मुझ बहु प्रकार मंगल करन।।१६।। तिन्हि कैं सम अरि मित्र एक कंचन कुधातु दुति। दुख-सुख एक समान एक निद्रा समान नुति।। जेम ग्राम बस बास जेम ऊजर विछित्त नर। जेम रंक जिम राउ जेम उपसर्ग रच्छ कर।। जे पाप पुन्य सम जाति जग निजस्वरूप गुन आचरन। प्रनमौं सु साध क्रम कमल जुग बहु प्रकार मंगल करन।।१७।। तिन्हि मैं घट प्रगट्यौ समूह निज ज्ञान दिवाकर। गुनगरिष्ट गंभीर परम उतकृष्ट सुखाकर।।
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