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संख्यावाची साहित्य खण्ड सुनि सुधर्म तजि भोग कौं जी उत्तिम अंग प्रधान। उत्तिम ध्यानी महाव्रती जी पावत पद निरवान रे भाई।। तूं तजहु.।।२३।। सिवकारन जिनधर्म है जी और दया बिनु भर्म। यही जानि निज आचरौ जी सुद्धभाव मम पर्म रे भाई।। तूं तजहु.।।२४।। निरमल दरसन भक्ति है जी व्रत मंडित दस दोइ। मरन करें सल्लेखना जी इच्छक सिवपद सोइ रे भाई।। तूं तजहु.।।२५।। सकल सुख इक धर्म तैं जी पाप करत दुख दोषु। यह बालकु अबला कहै जी इष्ट लगै सोइ पोखु रे भाई।। तूं तजहु.।।२६।। देवी मन कम्मोदनी जी ससिवत ग्रंथ बखान।
धर्म कोस सुखदाइकी जी पढि हैं संत सुजान रे भाई।। तूं तजहु.।।२७।। (७) पंचपद पच्चीसी
दोहरा पंच परमगुरु की कहौं महिमा सब सुख कंद। निज सुबुद्धि परगासि करि वरनौं छप्पय छंद।।१।।
छप्पयछंद नमौं आदि-आदि अरिहंत सकल संतनि सुख दाइक। स्वयं सिद्ध जगदीस नौं त्रिभुअनपति नाइक।। आचारज-उवझाइ परमगुर जगत सहाई। साध-पुरिष के चरन नमौं भय-भंजन भाई।। ये जाम-जाम जपिये सदा थिर संतोस सुमन धरन। ये पंच परमगुर जगत महि बहु प्रकार मंगल करन।।२।। सिवनाइक सिवईस षष्टचालीस कलित गुन। रागदोष अरि मोह जीति जिन्हि जेर करे पुन।। उरह सुद्धउपयोग देह सुंदर छवि छाजत। नष्ट अष्ट दस दोस अष्ट प्रतिहार्ज विराजत।। केवल सुजुक्त दृग ग्यानमय चारि घातिया छय करन। श्री परमदेव इव धरहुँ बहु प्रकार मंगल करन।।३।।
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