________________
१३२
देवीदास-विलास तजति मूढ जिनधर्म कौं, जी सेवत विषय कसाइ। सो अमरतरस त्यागि मैं जी, पीवत विष दुखदाइ रे भाई।। तूं तजहु.।।९।। मिथ्याती धर्महि तजे जी, पोषत विषय-विकार। कलपव्रछ जिम काटि कैं जी, आक लगावत द्वार रे भाई।। तूं तजहु.।।१०।। या नरगति वर जानियें जी छोडि विषय रचिधर्म। इन्द्रादिक सुख भोग मैं जी लहत पूज्य पद पर्म रे भाई।। तूं तजहु.।।११।। ज्यों निसि ससि बिनु हूँ नहै जी, नारि पुरिष बिनु तेम। जैसे गजदंतनि बिना जी, धर्म बिना जन जे मरे रे भाई।। तूं तजहु.।।१२।। ज्यौं दल में सोभा सबै जी, रथ-गज-वाज अनूप। जैसे नरगति जानियें जी, धर्म रहित बिनु भूप रे भाई।। तूं तजहु.।।१३।। जैसे फूल विवासु को जी जल बिनु सरवर जेह। तैसे ग्रह संपति बिना जी, धर्म बिना नर देह रे भाई।। तूं तजहु.।।१४।। आराधन जिनदेव कौं जी, सेवत गुर निरगंथ। धर्म-दान-सनमान सौं जी जे नर सफल सुपंथ रे भाई।। तूं तजहु.।।१५।। कमला सील चला चलौ जी रूप जरा तन रोग। प्रीतम सुत सब जानियै जी नदिय-नाव संजोग रे भाई।। तूं तजहु.।।१६।। यह विचार मन आदरौ जी सुद्धभाव करि धर्म। जहा भाव तहा धर्म है जी, भुंजै विवगति कर्म रे भाई।। तूं तजहु.।।१७।। जे नर मूरख-बुद्धि हैं जी निंदत धर्म अपार। विषय-स्वाद के लोलुपी जी, थावर गति मरि धार रे भाई।। तूं तजहु.।।१८।। रुद्रभाव बरतें सदा जी क्रोधादिक हंकार। निरदै पर हियै बसें जी नर्क गमन सहकार रे भाई।। तूं तजहु.।।१९।। बुद्धिहीन मन आलसी जी लोभ सहि परपंच। मानी गुन गोपै गुनी जी जे मरि हौहि त्रिजंच रे भाई।। तूं तजहु.।।२०।। सरल चित्त संजुत दयाजी काज अकाज विचार। माया बिनु गुन जुक्त है जी, पावत नर अवतार रे भाई।। तूं तजहु.।।२१।। जे सुधर्म धन के रुची जी दानवंत जिन सेव। विषय त्यागि व्रत धारिक जी, तप करि हौंहि सुदेवरे भाई।। तूं तजहु.।।२२।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org