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संख्यावाची साहित्य खण्ड
धरि इनि दस थोकनि पर प्यारे, भेद अठारहसै गनि न्यारे । ए सव सहस अठारह जोरैं जामैं सीलवंत सुन लोरें । । १२ ।। इह विधि काम कलंक स् टालैं जे नरसील अखंडित पालैं । जग महि सील सित जे प्रानी सो परतच्छ सुधी सरधानी ।। १३ ।।
दोहरा
सील सहित सरवंग सुख सील रहित दुख भौंन । देवियदास सुसील कौ क्यौं न करौ चितौन । । १४ । । कहे भाखि सीलांग के सहस अठारह भेद । ते पालै तिन्हि के हृदै सिव - सुख सरस उमेद ।। १५ ।।
(६) धरम-पच्चीसी
दोहरा
पंच परमगुरु सुमरि कैं, सरसुति लागौं पाइ । कहौं धरम पच्चीसिका, भाषा विविधि बनाइ । । १ । ।
ढाल वीर जिनिंद की फिस्यो भ्रमत संसार मैं जी । मिथ्या विषय वढ़ाई लबधि बिना जिनधर्म की जी । । २ । ।
धारिय बहुत परजाइ रे भाई तूं यह धर्मु विचार | तजहु सकल भ्रम जार रे भाई ।। तूं तजहु . । । ३ । ।
दुख चारों गति के सहे जी चौरासीलख मांहि ।
कर्म तनैं फल भोग ए जी धर्म विचारयौ नांहि रे भाई ।। तूं तजहु . ।। ४।।
१३१
नरगति दुर्लभ जानियैजी दुर्लभ देह निरो ।
कुल-कमला दुरलभ मिली जी, धर्म बिना दई खोइ रे भाई।। तूं तजहु.।। ५ ।।
धर्म-अर्थ-कामा बिना जी, नर पशुवत दुख धाम ।
तामें धर्म प्रधान है जी, जा बिनु अरथ का रे भाई ।। तूं तजहु . । । ६ । ।
धर्म प्रथम ही आदरौ जी, विघन हरन सुभ रिद्धि ।
जिहि ग्रह संपत्ति आवही जी, इछइ सुभगु न रिद्धि रे भाई ।। तूं तजहु ।।७।।
गुन बिनु जीव सदा भ्रम्यौ जी, जनम - जरा - म्रत थान।
निश्चय करि सु नही कियो जी जै नर साइनि पान रे भाई ।। तूं तजहु । । ८॥
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