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________________ १३४ देवीदास-विलास जिन सम देव न और ठौर दीसत नंहि अदभुत। नर सुर खग फन-इंद्र-वृिंद्र वंदित प्रकार नुत।। सुमति सिद्धि दातार सुख खानि अखै पद। मिथ्या भूभ्रत भस्म करन जिन सम सु वज्र गद।। रतनाकर गुन गन ग्यान मय भवकलेस मल मद हरन। नमि सुचरन कर जोरि जुग बहु प्रकार मंगल करन।।४।। वंदत तसु चरनारविंद अति विबुध अनंदित। चरन कमल चरचत सुकृत्य नर पाप निकंदित।। तै अनेक जिनवानि एक नय करि पुनि मानिय। आगम अरथ विचारि साध संतनि मन आनिय।। परवान जास जिहि विधि करिय उर सरधा मन वचन तन। रसना सहस्र करि-करि कथत पारू न पावत सेसफन।।५।। उदधि ज्ञान गंभीर मोह मद विषय विहंडित। हाटक समगुन विमल सुद्ध जिय अखय अखंडित।। केवल पद परगास भयो भव भीर विभंजन। सकल तत्व वकतव्य देव ध्रुव परम निरंजन।। मार्तंड बोध परगट अवय हरन तिमिर जन मन मरन। चाहत सुयेम जिनदेव नुति बहु प्रकार मंगल करन।।६।। रमनि मुक्ति वरकंत सकल संतनि कौं प्यारे। भवन क्रपा गुन थान दान दाता हितकारे।। लेत एक तसु नाम सबै कलि-कलुष विनासत। चारू चित्त चैतन्य भिन्न निज परगुन भासत।। हिय धरत सुरासुर त्रिजग पति परम भक्ति निस दिन सरन। जै-जै जु देव अरिहंत जुव बहु प्रकार मंगल करन।।७।। इय भव अस परलोक विविधि विधि हौ सुखदाता। हाव-भाव करि नमौं न सेवक जन साता।। केलि करै सिव स्वर्ग पंथ सेवक जिनेश भवि। सकल सिद्धि नव निद्धि-रिद्धि पावत अनेक छवि।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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