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देवीदास - विलास
जुटाने लगी। किन्तु पारिवारिक झंझटों, सामाजिक दायित्वों की पूर्ति तथा महाविद्यालय सेवा सम्बन्धी अति व्यस्तताओं के कारण इस कार्य में तीव्रता न आ सकी। पाठान्तरों के लिए अन्य प्रतियों की खोज में भी भटकती रही किन्तु प्रयत्नों में अधिक सफलता नहीं मिल सकी। इधर, यह भी हार्दिक इच्छा थी कि जैसे भी हो, पूज्य पण्डित जी के जीवनकाल में ही यह ग्रन्थ प्रकाशित एवं विमोचित हो जाय तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी किन्तु अनेक दृश्य तथा अदृश्य दुखद व्यवधानों, जिनकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी, के कारण प्रेस कापी तैयार हो चुकने के बाद भी वह समयानुसार प्रेस में न जा सकी और अब दीर्घान्तराल के बाद उसका प्रकाशन सम्भव हो सका है। आज इस प्रकाशन के प्रेरक - सूत्रधार पूज्य पण्डित जी यद्यपि इस संसार में नहीं हैं किन्तु मुझे इसका हार्दिक सन्तोष है कि इस ग्रन्थ में मैंने उनके निर्देशानुसार ही बहुत ईमानदारी के साथ शोध-परक एवं तुलनात्मक कार्य किया है और यह भी विश्वास है कि यदि पण्डित जी स्वयं उस ग्रन्थ को देख सके होते, तो वे अवश्य ही सन्तुष्ट - प्रमुदित होते ।
इस ग्रन्थ के सम्पादन में मुझे अन्य जिन सज्जनों ने उपकृत किया है, उनमें से श्रीवर्णी संस्थान के वर्तमान उत्साही उपाध्यक्ष तथा जैन विद्या के लिए समर्पित युवा विद्वान् डॉ. अशोककुमार जी जैन (रुड़की विश्विद्यालय) की विशेष आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थ के उच्चस्तरीय मुद्रण- प्रकाशन के लिए व्यवस्था की । संस्थान के वर्तमान कार्यकारी मन्त्री डॉ. सुदर्शनलाल जी (संस्कृत - विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दु वि. वि.), संयुक्त मन्त्री डॉ. सुरेशचन्द्र जैन तथा संस्थान के अन्य पदाधिकारियों के प्रति भी आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने समय-समय पर उपेक्षित सहायताएँ प्रदान की। वर्णी-संस्थान के व्यवस्थापक डॉ. कपिलदेव गिरि ने प्रारम्भिक प्रूफ संशोधित कर सहायता की तथा तारा प्रिंटिंग वर्क्स के मालिक श्री रविप्रकाश पण्ड्या ने इसका सुरुचिपूर्ण मुद्रण किया, उनके प्रति भी मैं हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ।
ग्रन्थ सम्पादन में अनेक सन्दर्भ ग्रन्थों तथा शोध पत्र-पत्रिकाओं से भी मैंने अपेक्षित प्रेरणाएँ एवं सहायताएँ ली हैं, अतः उनके सम्मान्य लेखकों एवं सम्पादकों के प्रति भी मैं विनम्र आभार व्यक्त करती हूँ।
अप्रकाशित प्राचीन पाण्डुलिपि का सम्पादन मौलिक ग्रन्थ-लेखन की अपेक्षा कितना दुरूह, समय-साध्य एवं धैर्य - साध्य होता है, इसका अनुभव केवल उस मार्ग के पथिक-विद्वान् ही कर सकते हैं। उसके सम्पादन एवं मूल्यांकन में साधनापूर्ण पर्याप्त एकरस एकान्त, एकाग्रता, लम्बी-लम्बी बैठकों एवं सजगता की आवश्यकता
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