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आभार प्रदर्शन जनवरी, १९७७ की वह सुनहरी दोपहर मुझे अभी भी स्मरण है, जब शौरसेनी आगम साहित्य के महान् उद्धारक श्रद्धेय पूज्य पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसी से मेरे घर पधारे। उनका आगमन मुझे ऐसा लगा जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष मिल गया हो। पता नहीं, पूर्व जन्म के किन सुकर्मों का वह सुफल था कि एक सरस्वती पुत्र मेरी कुटिया पर आनायास ही आ गया। उस क्षण की अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति की अभिव्यक्ति को शब्दों में बाँध पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है। __भोजनादि के बाद उन्होंने अपने आने का उद्देश्य जब मुझे बताया तो मैं आश्चर्यचकित रह गई। वे बोले– “बेटी, तुम्हें अप्रकाशित प्राचीन पाण्डुलिपियों के अध्ययन एवं समीक्षा का अच्छा अनुभव है। तुम्हारे लेखन में चुस्ती एवं प्रामाणिकता है। अतः बहुत ही विश्वासपूर्वक एक अप्रकाशित दुर्लभ पाण्डुलिपि तुम्हें देने आया हूँ। तुम्हें इसका उद्धार ही नहीं, बल्कि अपने साहित्यिक कार्यों की व्यस्तता में से समय निकालकर इसके सम्पादन एवं समीक्षा के लिए प्राथमिकता देना है। चूँकि यह पाण्डुलिपि गणेश वर्णी संस्थान की अमूल्य निधि है, अतः इसका प्रकाशन वर्णी संस्थान की ओर से किया जायगा।" मैं नतमस्तक थी। वे भावावेश में बोलते रहे _ “यह 'देवीदास-विलास' है। उसके लेखक कवि देवीदास बुन्देलखण्ड के लोकप्रिय कवि तथा श्रमण संस्कृति के गौरव पुत्र थे। हिन्दी-जगत में यह कवि सर्वथा अपरिचित है। अतः इसका साहित्यिक मूल्यांकन अत्यावश्यक है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि जैनेतर हिन्दी के भक्त कवियों में इनका स्थान सुनिश्चित किया जाय। मेरी समझ से अभी तक हिन्दी जैन-साहित्य में इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं हुआ है और इसी कारण हमारा अतिसमृद्ध हिन्दी जैन-साहित्य उपेक्षित, नगण्य या साम्प्रदायिक श्रेणी में डाल दिया गया है, जो कि एक दुखद स्थिति है। यदि इस कृति के माध्यम से उस अभाव की कुछ भी क्षतिपूर्ति हो सके और अगली पीढ़ी के लिए कुछ प्रेरणा मिल सके, तो मुझे बड़ा सन्तोष होगा।"
पूज्य पण्डित जी के उक्त शब्द अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं। उनकी भावनाओं को आदर देने हेतु उनके आदेश को शिरोधार्य करने के अतिरिक्त मेरे सामने दूसरा कोई चारा न था। अपनी सीमित शक्ति एवं बुद्धि की अल्पता को जानते हुए भी साहस बटोरती रही और उक्त पाण्डुलिपि के सम्पादन के लिए साधन सामग्री
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