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________________ १२६ देवीदास-विलास अरिल्ल परम समरसी भाव परम रस रीति है। सुद्ध भाव अरु सुद्ध सकल वर नीति है।। इह विधि करि सरधा सु सुद्ध पद जानियें। सो समकित परमावगाढ वखानि ।।११।। कवित्त छंद उत्तिम क्रिया दान पुनि उत्तिम व्रत उत्तिम उत्तिम मतिचित्त। उत्तिम भक्ति छेत्र श्रुत उत्तिम उत्तिम जप सुमिरन अनमित्त।। उत्तिम ध्यान धैन तप तीरथ उत्तिम मन अस्तुति वरनित्त। उत्तिम भाव-ठाव सब उत्तिम सो अवगाढ़ नाम समकित्त।।१२।। दोहरा यह समकित महिमा कथन गन फनपति थक होत। सो दशविधि संछेप करि वरन्यौं धरम उदोत।।१३।। (४) द्वादशानुभावना बंदौ सिद्ध विभाव विनु परमानंद विलास। सदा सुद्ध उपयोग मय रहित चतुर्गति वास।।१।। चतुर्गती संसार मैं जे जिय परे कुफंद। द्वादसानुप्रेक्ष्या कहौं तिहि कारन सुख कंद।।२।। अथिर भिया जग जीवनौं नीरव जू जा जेम। बिजुली सम देखौ प्रगट जोवन तन धन हेम।।३।। यही निरन्तर जानि बुध तजि अनित्य स्वयमेव। अनित्यानुप्रेक्ष्या सु यह भाषी गनधर देव।।४।। असरन जीव जगत्र सब सरनु न कोई जीव। आप-आप को सरन निज देखौ आपु सदीव।।५।। १. मूल प्रति परवानियै २. रचना काल- दुतिय कुवार सुदि १२ सं. १८१४ ग्राम दुगौडे मध्यदिसाल १८सौ सुफिर धरौ चतुर्दस और। दुतिय कुंवार सुदिद्वादसी गुरुवासर सुख ठौर।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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