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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१२७
दरसन ज्ञान चरित्रमय लखौं आपु करि आए।
और सरन जिय कौं नहीं सब परिहरौ खिलापु।।६।। तीनि लोक महि सरनु यह दूजौ सरन न और। देखौ एक स्वरूप निज तीनि लोक सिर मौर।।७।। पंच प्रकार भ्रम्यौ जगत बंधन बंध्यौ सु पंच। प्रगट लखे बिनु आतमा सुख न कहू इक रंच।।८।। एक सुद्ध निज गुन सदन सहित दूसरो नांहि। मिथ्यामद मोहित भयो भ्रम्यौ जिया जग माहि।।९।। जब सम्यक दरसन लहैं सब परिहरै विभाउ। एक स्वरूप सु होइगौ मुक्तिपुरी कौ राउ।।१०।। अन्य सरीरादिक सबै अन्य आतमाराम। अन्य वस्तु तजि कीजिये आपु विर्षे विसराम।।११।। जैसे पावक छांडि कैं ईंधनु दहै न कोइ। जीव विना जिम कर्म को हनता और न होइ।।१२।। सात धातु मय तन सुयह क्रम कुल असुचि निवास। जामै तुम कह रचि रहे निज गुन करौ प्रकास।।१३।। देखौ तन अपवित्र अति विमल चिदानंद रूप। पुदगल को परसंग तजि परसौ तत्व अनूप।।१४।। जो अपनौ परिनाम तजि पर परनति मैं लीन। सो आश्रव जानौं सुधी अहंबुद्धि करि कीन।।१५।। आश्रव यह संसार को भार बड़ा वन बंस। सो परिनाम विसारि निज निरखौ निरमल हंस।।१६।। जो पहिचानै आप पर त्यागै पर परिनाम। सो संवर जिनवर कह्यौ जाकौं सदा सलाम।।१७।। जबै जीव संवर करै धरै मुकतिपुर पंथ। तब विभाव सब परिहरै धरि पदवी निरगंथ।।१८।। सहज रूप आनंदमय सदा सुद्ध निकलंक। कंचन सम सु अलिप्त नित कर्म सुभासुभ पंक।।१९।।
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