SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १२५ दरसन ज्ञान चरित जुत परम सुद्ध सुख होई। बरतै नित निज पंथ मैं मारग समकित सोई।।४।। चौपही सुनि करि गुर उपदेसै सोई अविचल मगन जासु मैं होई। करि सरधा सु एक चित गहिये सो उपदेश समकिती कहिये।।५।। सोरठा सुनि सुबानि सिद्धत करि सरधा निहचल मगहि। सूत्र नाम सो संत समकित विबुध प्रमान कहि।।६।। गीतिका छंद गहि पंचपद पैंतीस अछिर पंचपरमेष्टी धरै। इन्ह आदि और जिनेस भाषित जाप जप सुमिरन करै।। अपि थिर अटल करि धरि विमल गुन हर्षि-हर्षि हिमैं भिया। इहिं भांति नाम विसेष करि सो वीर्ज गुन समकित जिया।।७।। सवैया तेईसा देव नहीं अरिहंत समान नहीं गुर श्रीनिरगंथ सरीके। . जीव दया जुत तें ध्रुव धर्म नहीं पुनि और प्रकार सुधीके।। ए विधि तीनि अमोलक रत्न धरै थिरता करि अंतरहीके। सम्यक सो कहिये सनछेप सु जा बिनु जे जग मैं जन फीके।।८।। अरिल्ल.. नै अनेक सुविसेक एक चिद्रूप गुनि। . . बहु विस्तार त्रिलोक जासु बहु रूप सुनि।।। .. सदा करें सरधा सु रहै निज पंथ मैं। सो समकित विस्तार कह्यौ जिनग्रंथ मैं।।९।। सवैया तेईसा जीव अजीव सु आश्रव बंधन संवर-निर्जर मोख प्रमानैं। ... पाप मिलै अरु पुन्य दुहू जब ए नव भेद पदारथ जानैं।। विजन सुद्ध-असुद्ध अनेक सुभेद करै सरधा उर आनें। सो दुख दाह सिरावन नाम सु सम्यक अर्थ जिनेस बखानैं।।१०।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy