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देवीदास-विलास नहीं जीव के घात तैं पाप हैं और आगम वि. जे ततछन धरे हैं। सघन पाप के भर सु ये मैं बखानैं सु ते पाप लोगनि खिलौना करे हैं।।७।। भए लोक की दर्व मूसिवे कौं सु ते चोर चोरै सबै वस्तु प्यारी। करें जो महात्रास पावै घनी जे मर जाइ न परे दुक्खभारी।। गये सुभ्र सिवभूत चोरी विसन तैं पर जाइ कै दुक्ख के पाथरे हैं। सधन पाप के भर सु ये मैं बखानैं सुते पाप लोगनि खिलौना करे हैं।।८।। महापाप की मरि नारी पराई पगै जे समैं एक के सक्ख काजै। रमैं मानि आनंद सौं जोग दै कुधी दुर्गति जे नहीं नैकु लाजै।। यही और की नारि के पाप पै नासि रावन गयो राजु नकें परे हैं। सघन पाप के भर सु ये मैं बखानैं सु ते पाप लोगनि खिलौना करे हैं।।९।। करन तीनि ठानैं सु मद आठ आने जुरा जोग सौं पंच इंद्रिनि लगे हैं। कहैं चारि विकथा सात विष्ण सेवै कषाय सदाचार ही सौं पगे हैं।। मिलैं पंच मिथ्यात ए कर्म छत्तीस करे बंध तिन्हि ते निगोदै परे हैं। सघन पाप के भर सुये मैं बखानैं सुं ते पाप लोगनि खिलौना करै हैं।।१०।।
दोहा सेवत सात कुविन ये परत दुर्गते जीव।
जो इन्हि पापनि तैं रहित सो सिवरूप सदीव।।११।। (३) दसधा सम्यक्त्व
जे विरक्त भव-भोग तैं सिवआसक भवि कोई। तिनि को द्रग दस विधि कह्यौ जिन आगम लखि सोई।।१।।
छप्पड़ आज्ञा प्रथम सुभाव दुतिय मारग सुखदाइक। त्रितिय नाम उपदेस सूत्र चौथो बुध लाइक।। वीजभाव पंचमौ षष्ट संछेप निज्जइ। सप्तम विधि विस्तार अर्थ अष्ट गुन लिज्जइ।। परमावगाढ़ नवमौं कथन अरु अवगाढ़ विचार चित। यह भेद भिन्न दश भाँति कहि समकित हित नित सुनहु मित।।२।।
दोहरा जिन सासन भाषित करै बानी चित सरधान। आज्ञा समकित भाव सो जानौं बुध परवान।।३।।
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