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देवीदास-विलास जाके वैन सुनैं नैंन खुलै उर अन्तर के। जाको नाम लेत फल सदा दान दिए मैं।। जाके करै वन्दना के पाप को निकंदन है। देखें सुख रूप ज्यों अतिहि रस पिये मैं।। तेई कुन्थुनाथजू सो साथ मोख-मारग के।
देवीदास कहैं ते सुवसो मेरे हिए मैं।।१७।। (१८) श्री अरहनाथ जिन-वन्दना
मोह-भट बान्ध्यो तिन्हि सुभट कसाय सान्ध्यो। धान्ध्यो मन मदन विलात भयो डरिके।। अपनौ सु सहज-स्वरूप सुद्ध नौका बैठ। पार भए तृष्णा अपार नदी तरिके।। . लियो पद साहजीक परम अदोस होय। जन्म-जरा-मरणादि सखा छोड़ करिके।। वन्दना सु कीजे ऐसे अरह जिनेसुर की।
होय के विसुद्ध हाथ जोड़ सीस धरिके।।१८।। (१९) श्री मल्लिनाथ जिन-वन्दना
मारि महा बलबन्त हन्यौ सुजन्यौं सुखराग विरोध वितीतो। इन्द्रिन को विसरो व्योपार सुतौ अति ही सुख कारण लीतो।। स्वारथ सुद्ध जगो परमारथ धारण खेद सब जग जीतो।
मल्ल जिनेश असल्य भये तिन आपन हूँ अपनौ पद बीतौ।।१९।। (२०) श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-वन्दना - डारि परिग्रह धारि महाव्रत टारि मिथ्यात मिटै दुख मूजौ।
शेष-नरेस-सुरेस सबै जब आनि महा तिनिकौ पद पूजौ।। जा सम और नहीं जग मैं सुख कारण देव निरंजन दूजौ।
प्राण अधार सुधी तिनिके जयवन्त सदा मुनिसुव्रत हूजौ।।२०।। (२१) श्री नमिनाथ जिन-वन्दना
ध्यान कृपान सों क्रोध निदान हन्यों तिन मान बली छल लोभा। राजविभूति अनित्य लखी सब नीर भरै न रहैं जिय क्षोभा।।
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