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स्तोत्र-स्तुति-वन्दना खण्ड
११९ (१४) श्री अनन्तनाथ जिन-वन्दना
कवित्त सहज स्वभाव ही सौं वीतत विकल्प सबै। लखौ तिनि जगत विलात जैसे सपनौं।। जानीयों सो जान्यों देखवोह सो तौ देख्यो सब। , दिप्यो ज्ञान दर्शन विथ्यौ समस्त झपनौं।। अंतराय कर्म अन्त किये तैं अनन्त बल। भयो मोहमर्दन अनन्त सुख सपनों।। जयवन्त होहु ऐसे जग में अनन्तनाथ।
पायो तिनि सदाको गुमाओ रूप अपनौं।।१४।। (१५) श्री धर्मनाथ जिन-वन्दना
कवित्त गुण कौ न अन्त जाके गण-फणपति थाके। रसना सहस्र करि पार नहीं पायो है।। घातिया करम चार आठ दस दोष टारि। सकत सम्हार भूल भ्रम जु नसायो है।। परम अतिहि ज्ञान प्रगट्यौ सहज आनि। अति सुखदाय परधान पद पायो है।। ऐसे धर्मनाथ लिये मुकत वधू सो साथ।
जासों देवीदास हाथ जोड़ सीस नायो है।।१५।। (१६) श्री शान्तिनाथ जिन-वन्दना
शुद्धोपयोग अतिहिय भोग लयौ तिहिं कर्म कलंक निवारे। एक समै महिं जे सर्वज्ञ भये सब लोक विलोकन हारे।। पूजन जे भवि या जग मैं तिन्हि पुण्य उदै पद उत्तम धारे।
ते भगवन्त अथाहि अनन्त वसो उर शान्ति जिनेस हमारे।।१६।। (१.७) श्री कुन्थनाथ जिन-वन्दना
जाके गुन ध्यावत सु पावै परमारथ कौं। जाको जस गावै कोटि तीरथ के किये मैं।।
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