________________
११८
देवीदास-विलास
दरसन ज्ञान चरन गुण शीतल निरमल जगे सहज गुण तीनौं।
शीतलनाथ नमौं सु आपु तिन्हि सहज स्वभाव आप लख लीनौं।।१०।। (११) श्री श्रेयान्सनाथ जिन-वन्दना
कवित्त चौंसठ चमर जाके सीस सुर ईस ढारें। अतिसै विराज तीस चार अगरे।।। आठ प्रातिहार जान अंतु हैं चतुष्टैसे। तिन्ह कौ प्रकास लोकालोक विषै वगरे।। क्षुधा तृषा आदि जे सु रहित अठारा दोस। सुद्ध पद पाय मोक्षपुरी काजै डगरे।। धरिकै सुभाव भाव नमों सु श्रेयान्सनाथ।
कर्मचार घातिया को मर्म चिन्ह रगरे।।११।। (१२) श्री वासुपूज्य जिन-वन्दना
कवित्त घातिया करम मेंटि सहज स्वरूप भेटि। भए भव्य तिन्है जे सरैया ज्ञानदान के।। सहेत लाभ मोख कौ स आतमा अदोष कौ। अंतिहि सुख भोग अंतराय कर्म हान के।। उपभोग अंतराय गये सों विभूति पाय। समोसरणादि सुख देत निरवान के।। वीरज अनंत नंत दंसण प्रकास्यो सत्य।
ऐसे वासुपूज्य सुसमुद्र सुद्ध ज्ञान के।।१२।। (१३) श्री विमलनाथ जिन-वन्दना
कवित्त निर्मल धर्म गहो तिन पर्म सु निर्मल पंथ गह्यो परमारथ। निर्मल ध्यान धरो सर्वज्ञ जगो अति निर्मल ध्यान जथारथ।। निर्मल सुख्य सु निर्मल दृष्टि विषै सब भास रहे सुपदारथ। निर्मल नाथ करौ हमरी मत ज्यों आपनौ सो करो सब स्वारथ।।१३।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org